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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
( हरिगीत ) यदि भिक्षु के निरपेक्ष न हो त्याग तो शुद्धि न हो। तो कर्मक्षय हो किसतरह अविशुद्ध भावों से कहो।।२२०|| न हि निरपेक्षस्त्यागो न भवति भिक्षोराशयविशुद्धिः।
अविशुद्धस्य च चित्ते कथं नु कर्मक्षयो विहितः ।।२२०।। न खलु बहिरङ्गसंगसद्भावे तुषसद्भावे तण्डुलगताशुद्धत्वस्येवाशुद्धोपयोगरूपस्यान्तरङ्गच्छेदस्य प्रतिषेधः, तद्भावे चन शुद्धोपयोगमूलस्य कैवल्यस्योपलम्भः ।
अतोऽशद्धोपयोगरूपस्यान्तरंगच्छेदस्य प्रतिषेधं प्रयोजनमपेक्ष्योपधेर्विधीयमानः प्रतिषेधोऽन्तरंगच्छेदप्रतिषेध एव स्यात् ।।२२०।।
यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती और जो भाव से अविशुद्ध है, उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है ?
आचार्य अमृतचंद्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"जिसप्रकार छिलके के सद्भाव में चावलों में पाई जानेवाली लालिमारूप अशुद्धता को नहीं हटाया जा सकता; उसीप्रकार बहिरंग परिग्रह के सद्भाव में अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद का परिहार संभव नही है और अंतरंग छेद के सद्भाव में शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाले केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। इससे ऐसा कहा गया है कि अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद के निषेधरूप प्रयोजन को ध्यान में रखकर किया जानेवाला परिग्रह का निषेध एक प्रकार से अंतरंग छेद का ही निषेध है।"
आचार्य जयसेन इस गाथा के तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए तात्पर्यवृत्ति टीका में लिखते हैं
“इससे यह कहा गया है कि जिसप्रकार बाह्य में छिलके का सद्भाव होने पर चावल के अन्दर की शुद्धि होना संभव नहीं है; उसीप्रकार बाह्य परिग्रह की इच्छा विद्यमान होने पर निर्मल आत्मा की अनुभूतिरूप शुद्धि होना संभव नहीं है और यदि विशिष्ट वैराग्यपूर्वक परिग्रह का त्याग होता है तो चित्त की शुद्धि भी होती है; परन्तु प्रसिद्धि, पूजा-प्रतिष्ठा के लाभ की दृष्टि से त्याग करने पर चित्त की शुद्धि नहीं होती।"
‘बाह्य परिग्रह परद्रव्य हैं और परद्रव्यों से आत्मा का कोई बिगाड़-सुधार नहीं होता' - यद्यपि यह बात परम सत्य है; तथापि मुनिराजों के जबतक तिलतुष मात्र भी बाह्य परिग्रह रहता है; तबतक वास्तविक मुनिदशा प्रगट ही नहीं होती; क्योंकि अन्तर में परिग्रह से एकत्व-ममत्व बिना बाह्य परिग्रह रहता ही नहीं है - ऐसा नियम है। बाह्य परिग्रह की बुद्धिपूर्वक उपस्थिति