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प्रवचनसार
इसके बाद तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्रदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसमें वे कहते हैं कि इस संबंध में जो कुछ कहा जा सकता था, वह सब कुछ कह दिया है। ( वसन्ततिलका )
वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्तमेतावतैव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि । व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि ।।१४।। अथान्तरङ्गच्छेदप्रतिषेध एवायमुपधिप्रतिषेध इत्युपदिशति -
हरिवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी । अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिदो ।।२२० ।।
छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा)
जो कहने के योग्य है कहा गया वह सब्ब ।
इतने से ही चेत लो अति से क्या है अब्ब ||१४||
जो कहने योग्य था; वह सब अशेषरूप से कह दिया गया है, इतने मात्र से ही कोई चेत जाय, समझ ले तो समझ ले और न समझे तो न समझे; अब वाणी के अतिविस्तार से क्या लाभ है ? क्योंकि निश्चेतन (जड़वत्, नासमझ) के व्यामोह का जाल वास्तव में अति दुस्तर है । तात्पर्य यह है कि नासमझों को समझाना अत्यन्त कठिन है ।
यह छन्द अत्यंत मार्मिक है । आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार की आत्मख्याति टीका में तो २७८ छन्द लिखे हैं; किन्तु प्रवचनसार की टीका में मात्र २२ छन्द ही लिखे हैं । उन्हीं में से एक महत्त्वपूर्ण छन्द यह भी है ।
इस कलश में आचार्यदेव कह रहे हैं कि जो समझाया जा सकता था; वह हमने समझा दिया । जिन्हें समझ में आना होगा, उन्हें इतने से ही समझ में आ जाएगा और जिन्हें समझ में नहीं आना है; उनके लिए कितना ही विस्तार क्यों न करें, कुछ होनेवाला नहीं है; अतएव अब मैं इस चर्चा के विस्तार में जाने से विराम लेता हूँ ॥१४॥
विगत गाथा में बहिरंग और अंतरंग परिग्रह का निषेध किया गया है और अब इस गाथा यह समझाते हैं कि बहिरंग परिग्रह का निषेध अंतरंग परिग्रह का ही निषेध है ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -