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प्रवचनसार
दीक्षागुरु और दूसरे निर्यापक श्रमण शिक्षागुरु; अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि जब संयम छेद होता है तो उसका निराकरण किस विधि से होता है?
प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायाम् । जायते यदि तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया ।।२११।। छेदोपयुक्तः श्रमण: श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते।
आसाद्यालोच्योपदिष्टं तेन कर्तव्यम् ।।२१२।। द्विविधः किल संयमस्य छेदः, बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च । तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्गः, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरंगः।
तत्र यदिसम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमारब्धाया:कायचेष्टायाः कथंचिद्वहिरंगच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वथांतरंगच्छेदवर्जितत्वादालोचनपूर्विकयाक्रिययैव प्रतिकारः । यदा तुस एवोपयोगाधिकृतच्छेदत्वेन साक्षाच्छेद एवोपयुक्तोभवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्धश्रमणाश्रययालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन प्रतिसंधानम् ।।२११-२१२।। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) यदि प्रयत्नपूर्वक रहें पर देहिक क्रिया में छेद हो। आलोचना द्वारा अरे उसका करें परिमार्जन ||२११|| किन्तु यदि यति छेद में उपयुक्त होकर भ्रष्ट हों।
तो योग्य गुरु के मार्गदर्शन में करें आलोचना ||२१२।। यदि प्रथम प्रयत्नपूर्वक की जानेवाली कायचेष्टा में छेद होता है, दोष लगता है; तो आलोचनापूर्वक क्रिया करनी चाहिये। यदि श्रमण छेद (दोष) में उपयुक्त हुआ हो तो उसे जिनमत में व्यवहारकुशल श्रमण के पास जाकर अपने दोषों का निवेदन करके, वे जैसा उपदेश दें; वैसा करना चाहिए।
इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"संयम का छेद दो प्रकार का है - बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायचेष्टा सम्बन्धी छेद बहिरंग छेद है और उपयोग सम्बन्धी छेद अन्तरंग छेद है।
यदि भलीभाँति उपयुक्त श्रमण के प्रयत्नकृत कायचेष्टा का कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो अन्तरंग छेद से सर्वथारहित होने से आलोचना पूर्वक क्रिया से उसका प्रतिकार हो जाता है; किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसम्बन्धी छेद होने से छेद में साक्षात् उपयुक्त होता है तो