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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
४०९ “लिंग ग्रहण के समय निर्विकल्प सामायिक संयम के प्रतिपादक होने से दीक्षा देनेवाले आचार्य गुरु हैं और उसके बाद उसी समय सविकल्प छेदोपस्थापना के प्रतिपादक होने से पकःस निर्यापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानप्रतिपादकत्वेन छेदे सत्युपस्थापकः सोऽपि निर्यापक एव । ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति ।।२१०।। अथ छिन्नसंयमप्रतिसंधान विधानमुपदिशति -
पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचे?म्हि । जायदि जदितस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया।।२११।। छेदुवजुत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हिा
आसेज्जालोचित्ता उवदिटुं तेण कायव्वं ।।२१२।। छेद के प्रति उपस्थापक अर्थात् भेद में स्थापित करनेवाले निर्यापक हैं। इनके अतिरिक्त वे भी निर्यापक ही हैं, जो संयम के खण्डित होने पर उसी में पुनर्स्थापित करते हैं। इसप्रकार छेदोपस्थापक निर्यापक दीक्षाचार्य से भिन्न भी हो सकते हैं।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका के अनुसार ही करते हैं; तथापि अयमत्रार्थः' कहकर जो स्पष्टीकरण देते हैं; वह इसप्रकार हैं - __“निर्विकल्प समाधिरूप सामायिक से एकदेशच्युति एकदेशछेद है और सर्वथा च्युति सर्वदेशछेद है - इसप्रकार एकदेश और सर्वदेश के भेद से छेद दो प्रकार है। जो उन दोनों में प्रायश्चित्त देकर, संवेग और वैराग्य को उत्पन्न करनेवाले परमागम के वचनों द्वारा संवरण करते हैं; वे निर्यापक शिक्षागुरु और श्रुतगुरु कहलाते हैं तथा दीक्षा देनेवाले आचार्य दीक्षागुरु हैं - ऐसा अभिप्राय है।" ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि दीक्षार्थी के गुरु दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे दीक्षाचार्य, जो उनकी पूरी जाँच-परख करके उन्हें दीक्षा देते हैं और दूसरे वे निर्यापक श्रमण, जो उन्हें २८ मूलगुणों का स्वरूप अच्छी तरह समझाकर उन्हें निर्दोष रीति से पालन करने में मार्गदर्शन करते हैं और दोष लगने पर प्रायश्चित्त विधान से उन्हें पुनर्स्थापित करते हैं।
दीक्षा तो एक बार का काम है। अत: एक आचार्य अनेक लोगों को दीक्षा दे सकता है। पर अधिक संख्या होने पर उन्हें निरंतर संभालनेवाले निर्यापक तो अनेक चाहिए।
अत: दीक्षाचार्य एक और निर्यापक अनेक हो सकते हैं ।।२१०।। विगत गाथा में गुरु के रूप में दो प्रकार के गुरुओं की चर्चा की है - एक दीक्षाचार्य