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प्रवचनसार
- इसका उत्तर यह है कि यह छेदोपस्थापना चारित्र ६वें गुणस्थान से ९वें गुणस्थान तक होता है; अत: इसमें दोनों ही स्थितियाँ आ जाती हैं।
अथास्य प्रव्रज्यादायक इव छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्तीत्याचार्यविकल्पप्रज्ञापनद्वारेणोपदिशति -
लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि। छेदेसूवट्ठवगा सेसा णिज्जावगा समणा ।।२१०।। लिङ्गग्रहणे तेषां गुरुरिति प्रव्रज्यादायको भवति ।
छेदयोरुपस्थापकाः शेषा निर्यापका: श्रमणा: ।।२१०।। यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन य:किलाचार्य: प्रव्रज्यादायकः स गुरुः, य: पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्था
अप्रमत्त से प्रमत्त में जाना छेद है और प्रमत्त से अप्रमत्त में आना उपस्थापन है - इसप्रकार दोनों स्थितियाँ मिलकर छेदोपस्थापन है।
एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि हमने तो सुना है कि मूलगुणों में दोष लगना छेद है और उसका परिमार्जन करना उपस्थापना है ?
इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वह व्यवहार छेदोपस्थापना है और यहाँ जो बात कही जा रही है, वह निश्चय छेदोपस्थापना की है।
इस संबंध में विशेष स्पष्टीकरण अगली गाथाओं में किया जायेगा ।।२०८-२०९ ।।
विगत गाथाओं में छेदोपस्थापना का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि दीक्षाचार्य गुरु के अतिरिक्त छेदोपस्थापक गुरु भी होते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) दीक्षा गुरु जो दे प्रव्रज्या दो भेद युत जो छेद है।
छेदोपस्थापक शेष गुरु ही कहे हैं निर्यापका ||२१०|| मुनिलिंग ग्रहण के समय दीक्षा देनेवाले गुरु दीक्षाचार्य है और जो भेदों (२८ मूलगुणों) में स्थापित करते हैं और संयम में छेद होने पर पुनस्र्थापित करते हैं - इसप्रकार छेदद्वय में स्थापित करनेवाले शेष गुरु निर्यापक श्रमण हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं