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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
दिन में करें इकबार ही ये मूलगुण जिनवर कहें।
इनमें रहे नित लीन जो छेदोपथापक श्रमण वह ।।२०९|| सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणैकमहाव्रतव्यक्तिवशेन हिंसानतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरत्यात्मकं पञ्चतयं व्रतं, तत्परिकरश्च पञ्चतयी समितिः पञ्चतय इन्द्रियरोधोलोच: षट्तयमावश्यकमचेलक्यमस्नानं क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तश्चैवं एते निर्विकल्पसामायिकसंयमविकल्पत्वात् श्रमणानांमूलगुणा एव ।
तेषयदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदाकेवलकल्याणमात्रार्थिन: कुण्डलवलयांगुलीयादिपरिग्रहः किल श्रेयान्, न पुनःसर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापकोभवति ।।२०८-२०९।।
व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, केशलोंच, आवश्यक, अचेलपना, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़े-खड़े आहार और दिन में एक बार आहार - ये श्रमणों के मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं। इनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“सर्वसावधयोग प्रत्याख्यान स्वरूपएक महाव्रत की व्यक्तियाँ होने से हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह की विरतिरूप पंच महाव्रत और उसी की परिकरभूत पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रियरोध, केशलोंच, छह आवश्यक, अचेलकता, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़े-खड़े भोजन और दिन में एक बार भोजन - इसप्रकार ये २८ निर्विकल्प सामायिक संयम के विकल्प (भेद) होने से श्रमणों के मूलगुण ही हैं।
जब श्रमण निर्विकल्प सामायिक संयम में आरूढ़ता के कारण, जिसमें विकल्पों का अभ्यास नहीं है - ऐसी दशा से च्युत होता है; तब केवल स्वर्णमात्र के अर्थी को कुंडल, कंकण, अंगूठी आदि को ग्रहण करना भी श्रेय है; ऐसा नहीं है कि सर्वथा स्वर्ण की प्राप्ति ही श्रेय हो' - ऐसा विचार कर मूल गुणों में विकल्प (भेद) रूप से अपने को स्थापित करता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है।"
विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब मुनिराज अप्रमत्त दशा से प्रमत्त दशा में आते हैं; तब यद्यपि उनके शुद्धोपयोग नहीं है; तथापि मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्ध परिणति तो विद्यमान ही है। इसकारण वे संयमी ही हैं।
यह एक प्रश्न हो सकता है कि अप्रमत्त से प्रमत्त में जाना छेदोपस्थापना चारित्र है या प्रमत्त से अप्रमत्त में आना?