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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार जिनोक्त व्यवहारविधि में कुशल श्रमण के आश्रय से आलोचनापूर्वक उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा संयम का प्रतिसंधान होता है।"
अथ श्रामणस्य छेदायतनत्वात् परद्रव्यप्रतिबन्धाः प्रतिषेध्याइत्युपदिशति । अथ श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनत्वात् स्वद्रव्य एव प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति -
अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे। समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो णिबंधाणि ।।२१३।। चरदि णिबद्धो णिच्चं समणोणाणम्हि दंसणमुहम्हि । पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो।।२१४।।
अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये। श्रमणो विहरतु नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ।।२१३।। चरति निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे।
प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्णश्रामण्यः ।।२१४।। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि मुनि अवस्था में दो प्रकार के दोष लगते हैं। एक तो काय संबंधी क्रियाओं में और दूसरे अपने उपयोग में । काय संबंधी क्रियाओं में अनजाने में हो गया स्खलन बाह्य छेद है; क्योंकि इसमें जान-बूझकर कुछ नहीं किया गया है। अत: इसका परिमार्जन प्रतिक्रमणपूर्वक की गई आलोचना से ही हो जाता है।
दूसरे में उपयोग संबंधी स्खलन होता है। मुनिधर्म में निषेध्य कार्यों में उपयोग कारंजायमान होना ही अंतरंग छेद है। इसके परिमार्जन के लिए निर्यापक गुरु के पास जाकर स्वयं ही सब निवेदन करना होता है और वे जो भी प्रायश्चित्त दें, उसे सच्चे मन से स्वीकार करके पालन करना होता है।।२११-२१२ ।।
विगत गाथाओं में छिन्न संयम और उसके परिमार्जन की विधि बताई गई है।
अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि छेद का आयतन परद्रव्य हैं और श्रामण्य की परिपूर्णता का आयतन स्वद्रव्य है; इसलिए परद्रव्य में प्रतिबंध निषेध्य है और स्वद्रव्य में प्रतिबंध विधेय है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) हे श्रमणजन! अधिवास में या विवास में बसते हुए। प्रतिबंध के परिहारपूर्वक छेदविरहित ही रहो।।२१३||