________________
४००
प्रवचनसार
आत्मद्रव्य का स्वाभाविक शुद्धरूप धारण करने से यथाजातरूपधर होता है अर्थात् नग्न दिगम्बर दशा को धारण करता है।" ___ अथैतस्य यथाजातरूपधरत्वस्यासंसारानभ्यस्तत्वेनात्यन्तमप्रसिद्धस्याभिनवाभ्यास कौशलोपलभ्यमानाया: सिद्धेर्गमकं बहिरङ्गान्तरङ्गलिङ्गद्वैतमुपदिशति -
जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं ।।२०५।। मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहिं। लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं ।।२०६।।
यथाजातरूपजातमुत्पाटितकेशश्मश्रुकं शुद्धम् । रहितं हिंसादितोऽप्रतिकर्म भवति लिङ्गम् ।।२०५।। मूर्छारम्भवियुक्तं युक्तमुपयोगयोगशुद्धिभ्याम् ।
लिङ् न परापेक्षमपुनर्भवकारणं जैनम् ।।२०६।। इसप्रकार इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि जो दीक्षार्थी परपदार्थों से एकत्वममत्व-कर्तृत्व-भोक्तृत्वबुद्धि तोड़कर अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में ही अपनापन स्थापित कर; उसमें ही जम जाता है, रम जाता है और तत्काल उत्पन्न हुए बालक के समान नग्न दिगम्बर दशा को धारण करता है; वह दीक्षार्थी ही मुक्तिपद को प्राप्त करता है ।।२०४ ।।
इन २०५ व २०६वीं गाथाओं की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि अब अनादि संस्कार से अनभ्यस्त होने से जो अत्यन्त अप्रसिद्ध है और नये प्रयास के अभ्यास की कुशलता से जो उपलब्ध होता है - उस यथाजातरूपधरपने के बहिरंग और अंतरंग - इन दो लिंगों का उपदेश करते हैं। तात्पर्य यह है कि इन गाथाओं में द्रव्यलिंग और भावलिंग की चर्चा करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) शृंगार अर हिंसा रहित अर केशलुंचन अकिंचन । यथाजातस्वरूप ही जिनवरकथित बहिलिंग है।।२०५।। आरंभ-मूर्छा से रहित पर की अपेक्षा से रहित।
शुध योग अर उपयोग से जिनकथित अंतरलिंग है।।२०६।। श्रमण का बाह्यलिंग (द्रव्यलिंग) सिर और दाढ़ी-मूछ के बालों का लोंच वाला और