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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
शुभभावरूप पंचाचार या शुभक्रियारूप पंचाचार के रूप में ही ग्रहण करना चाहिए; निश्चय पंचाचार के रूप में नहीं || २०२ - २०३॥
अथातोऽपि कीदृशो भवतीत्युपदिशति -
णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि ।
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इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो ।। २०४ ।। नाहं भवामि परेषां न मे परे नास्ति ममेह किंचित् ।
इति निश्चितो जितेन्द्रियः जातो यथाजातरूपधरः ।। २०४।। ततोऽपि श्रामण्यार्थी यथाजातरूपधरो भवति । तथाहि - अहं तावन्न किंचिदपि परेषां भवामि परेऽपि न किंचिदपि मम भवन्ति, सर्वद्रव्याणां परैः सह तत्त्वतः समस्तसंबंधशून्यत्वात् । तदिह षड्द्रव्यात्मके लोके न मम किंचिदप्यात्मनोऽन्यदस्तीति निश्चितमतिः परद्रव्यस्वस्वामिसंबंधनिबंधनानामिन्द्रियनोइन्द्रियाणां जयेन जितेन्द्रियश्च सन् धृतयथानिष्पन्नात्मद्रव्यशुद्धरूपत्वेन यथाजातरूपधरो भवति ।। २०४ ।।
विगत गाथाओं में दीक्षा लेने की आरंभिक क्रिया-प्रक्रिया का निरूपण कर अब इस गाथा में दीक्षित साधु का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है( हरिगीत )
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रे दूसरों का मैं नहीं ना दूसरे मेरे रहे।
संकल्प कर हो जितेन्द्रिय नग्नत्व को धारण करें ||२०४ ||
'मैं दूसरों का नहीं, दूसरे पदार्थ मेरे नहीं है; इस लोक में मेरा कुछ भी नहीं हैं' - ऐसा वस्तुस्वरूप निश्चित किया है जिसने, वह दीक्षार्थी जितेन्द्रिय होता हुआ, यथाजातरूपधर अर्थात् जैसा नग्न दिगम्बर पैदा हुआ था, वैसा ही नग्न दिगम्बर रूप धारण करता है।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"उसके बाद वह दीक्षार्थी यथाजातरूपधर होता है । तात्पर्य यह है कि वह सभी वस्त्राभूषण का त्याग कर नग्न दिगम्बर वेष धारण कर लेता है ।
इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
‘प्रथम तो मैं किंचित्मात्र भी पर का नहीं हूँ और परपदार्थ भी किंचित्मात्र मेरे नहीं हैं; क्योंकि तात्त्विक दृष्टि से सभी पदार्थ पर के साथ के संबंध से रहित हैं ।
'इसलिए इस षड्द्रव्यात्मक लोक में आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरा नहीं है' इसप्रकार व्यवस्थित हुई है बुद्धि जिसकी और जो परद्रव्यों के साथ स्व-स्वामी संबंध जिनका आधार है - ऐसी इन्द्रियों और नोइन्द्रियों के जीतने से जितेन्द्रिय हुआ है; वह दीक्षार्थी
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