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प्रवचनसार
३९८ वह भी नहीं रहा है। इसकारण अब मैं दीक्षा लेने के लिए जा रहा हूँ।' - यह भाषा सूचना देने की भाषा है, न कि आज्ञा माँगने की।
आचार्य जयसेन ने यह तर्क दिया है कि कुटुम्बीजन मिथ्यादृष्टि भी हो सकते हैं और विरोधी भी हो सकते हैं। ऐसे में उनकी आज्ञा की शर्त कैसे हो सकती है ? दूसरे जब सभी से राग टूट ही गया है तो फिर उनसे आज्ञा की बात कैसे संभव है ? __इसमें एक प्रश्न और भी प्रस्तुत किया जा सकता है कि यदि ऐसी बात है तो पूछने की और छुड़ाने की बात करने की भी क्या आवश्यकता है?
इसके उत्तर में यह कहा गया है कि पूछने और छुड़ाने के बहाने जो वैराग्यमय चर्चा की जायेगी; उससे किसी अन्य कुटुम्बीजन को भी वैराग्य हो सकता है और वह भी दीक्षा ले सकता है। इसलिए उक्त प्रसंग आवश्यक माना गया है।
एक बात यह भी तो है कि दीक्षा लेने के पहले सबको मर्यादित भाषा में सूचना देना आवश्यक है; अन्यथा घरवाले और परिवारवाले आपके अचानक चले जाने से आकुलित हो सकते हैं, पुलिस में रिपोर्ट लिखा सकते हैं; ऐसी स्थिति में पुलिस उन्हें और उनके गुरु को गिरफ्तार कर सकती है। इन सबसे बचने के लिए सूचना देना तो अत्यन्त आवश्यक है। ___ आजकल दीक्षा देनेवाले आचार्य दीक्षार्थी के माँ-बाप आदि को बुलाते हैं, सबके सामने उसकी अनुमति लेते हैं; तब दीक्षा देते हैं।
होता तो यह है कि तीव्र राग के कारण माता-पिता और स्त्री-पुत्रादि भी आसानी से अनुमति नहीं देते; आखिर दीक्षा लेनेवाले को उन सबकी उपेक्षा करके ही दीक्षा लेनी पड़ती है। ___ दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तत्त्वप्रदीपिका टीका में जिसप्रकार बन्धुवर्गादि से अनुमति लेने की भाषा का प्रयोग है; उसीप्रकार की भाषा का प्रयोग पंचाचार के संदर्भ में भी है। उन्हें भी संबोधित करके कहा गया है कि निश्चय से तुम मेरे शुद्धात्मा नहीं हो, तुम्हें मैं तबतक के लिए ही अंगीकार करता हूँ, जबतक शुद्धात्मा को उपलब्ध नहीं कर लेता।
ऐसी स्थिति में विचारणीय बात यह है कि ध्यानतप जैसे धर्म को भी तबतक के लिए स्वीकार किया जा रहा है, जबतक शुद्धात्मा की उपलब्धि नहीं हो जाती। तो क्या ध्यान नामक तपाचार के काल में भी शुद्धात्मा उपलब्ध नहीं है?
इस प्रश्न का एकमात्र उत्तर यही हो सकता है कि उक्त पंचाचारों को व्यवहार पंचाचार या