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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वानभ्युपगमे द्वौ पक्षावुपन्यस्य दूषयतिणाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा । हो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव ।। २४ ।। हो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि । अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं जाणादि ।। २५ ।।
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ज्ञानप्रमाणमात्मा न भवति यस्येह तस्य स आत्मा । हीनो वा अधिको वा ज्ञानाद्भवति ध्रुवमेव ।। २४ ।। हीनो यदि स आत्मा तत् ज्ञानमचेतनं न जानाति । अधिको वा ज्ञानात् ज्ञानेन विना कथं जानाति ।। २५ । ।
इसप्रकार इस गाथा में मात्र यही कहा गया है कि ज्ञान सबकुछ जानता है; अत: ज्ञान सर्वगत है । इसी बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि सभी जगत ज्ञानगत है; क्योंकि वह ज्ञान के द्वारा जाना जाता है। लोकालोक को जानने से ज्ञान लोकालोक में पहुँच गया - ऐसा कहो या लोकालोक ज्ञान में आ गया - ऐसा कहो, दोनों एक-सी ही बातें हैं ।
ज्ञेय-ज्ञायकरूप निमित्त- नैमित्तिक संबंध होने से उक्त कथन व्यवहारनय का ही कथन है। परमार्थ से देखें तो न तो ज्ञान ज्ञेयों के पास जाता है और न ज्ञेय ज्ञान के पास आते हैं।
गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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दोनों अपनी-अपनी जगह पर रहते हुए ही ज्ञान ज्ञेयों को जान लेता है और ज्ञेय ज्ञान जानने में आ जाते हैं। वस्तु का स्वरूप ऐसा ही है ।। २३ ।।
विगत गाथा में आत्मा को ज्ञानप्रमाण और ज्ञान को ज्ञेयप्रमाण बताया गया है। अब इन २४ और २५ वीं गाथाओं में उसी बात को युक्ति से सिद्ध करते हैं। आत्मा को ज्ञानप्रमाण न मानने में दो पक्ष प्रस्तुत कर उक्त मान्यता का निराकरण करते हैं ।
( हरिगीत )
अरे जिनकी मान्यता में आत्म ज्ञानप्रमाण ना ।
तो ज्ञान से वह हीन अथवा अधिक होना चाहिए ||२४||
ज्ञान से हो हीन अचेतन ज्ञान जाने किसतरह । ज्ञान से हो अधिक जिय किसतरह जाने ज्ञान बिन ||२५||