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प्रवचनसार
आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम् ।
ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ।।२३।। आत्मा हि समगणपर्यायं द्रव्यम' इति वचनात ज्ञानेन सह हीनाधिकत्वरहितत्वेन परिणतत्वात्तत्परिमाणः, ज्ञानं तु ज्ञेयनिष्ठत्वाद्दाहानिष्ठदहनवत्तत्परिमाणं; ज्ञेयं तु लोकालोकविभागविभक्तानन्तपर्यायमालिकालीढस्वरूपसूचिता विच्छेदोत्पादध्रौव्या षड्द्रव्यी सर्वमिति यावत् । __ततो नि:शेषावरणक्षयक्षण एव लोकालोकविभागविभक्तसमस्तवस्त्वाकारपारमुपगम्य तथैवाप्रच्युतत्वेन व्यवस्थितत्वात् ज्ञानं सर्वगतम् ।।२३।।
उक्त गाथाओं का मूल वजन इस बात पर है कि केवलज्ञानी भगवान स्व और पर सभी पदार्थों को, उनकी भूत, भावी और वर्तमान पर्यायों के साथ एक समय में वर्तमानवत् ही प्रत्यक्ष जानते हैं; क्योंकि स्वयं के आत्मा के आश्रय से उत्पन्न उनका स्वपरप्रकाशक केवलज्ञान इन्द्रियाधीन नहीं है, परोक्ष नहीं है; अतीन्द्रिय है और पूर्णत: स्वाधीन है।।२१-२२।।
ज्ञानाधिकार की आरंभिक २१ एवं २२वीं गाथाओं में यह कहा गया है कि केवलज्ञानी सभी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं और अब यह कहा जा रहा है कि आत्मा ज्ञानप्रमाण है और लोकालोक को जाननेवाला ज्ञान सर्वगत है; क्योंकि ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) यह आत्म ज्ञानप्रमाण है अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है।
हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है ।।२३।। आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा गया है। ज्ञेय लोक और अलोक है; इसलिए जान सर्वगत (सर्वव्यापक) है।
उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“समगुणपर्यायं द्रव्यं अर्थात् युगपद् सभी गुण और पर्यायें ही द्रव्य हैं - इस वचन के अनुसार ज्ञान सेहीनाधिकतारहित रूपसेपरिणमित होने के कारण आत्माज्ञानप्रमाण है और दाहानिष्ट दहन (अग्नि) के समान ज्ञेयनिष्ट होने से ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है। अनन्त पर्यायमाला से आलिंगित स्वरूपसेसूचित, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक, षद्रव्यमयीलोक और अलोक के विभाग से विभक्त सभी कुछ ज्ञेय है।
इसलिए सम्पूर्ण आवरण के क्षय के क्षण ही लोक और अलोक के विभाग से विभक्त समस्त वस्तुओं के आकारों के पार को प्राप्त करने के कारण इसीप्रकार अच्युत रूपसे रहने से ज्ञान सर्वगत है।"