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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
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यथा ममात्मना दुःखमोक्षार्थिना
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणंतह णमो गणहराणं । अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ।।४।। तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज ।
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।।५।। इति अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधूनां प्रणतिवन्दनात्मकनमस्कारपुरःसरं विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानं साम्यनाम श्रामण्यमवान्तरग्रन्थसंदर्भोभयसंभावितसौस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्नं, परेषामात्मापि यदि दुःखमोक्षार्थी तथा तत्प्रतिपद्यताम्। यथानुभूतस्य तत्प्रत्तिपत्तिवर्त्मनः प्रणेतारोवयमिमे तिष्ठाम इति ।।२०१।। आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया है"जिसप्रकार दुखों से मुक्ति चाहनेवाले मेरे आत्मा ने -
(हरिगीत) अरहंत सिद्धसमूह गणधरदेवयुत सब सूरिगण। अर सभी पाठक साधुगण इन सभी को करके नमन ||४|| परिशुद्ध दर्शनज्ञानयुत समभाव आश्रम प्राप्त कर।
निर्वाणपद दातार समताभाव को धारण करूँ||५|| - इसप्रकार अरहंतों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं को प्रणाम-वंदनात्मक नमस्कार करके विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान साम्य नामक श्रामण्य को, जिस श्रामण्य की इस ग्रंथ में कहे गये ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन नामक दो अधिकारों की रचना द्वारा सुस्थिता हुई है उस श्रामण्य को स्वीकार किया है; उसीप्रकार दूसरों के आत्मा भी, यदि दुःखों से मुक्त होना चाहते हैं तो उस श्रामण्य को अंगीकार करो। उस श्रामण्य को अंगीकार करने का यथानुभूत जो मार्ग है; उसके प्रणेता हम यह खड़े हैं।" ___टीका की अन्तिम पंक्ति को पढ़कर ऐसा लगता है कि जैसे किसी शिष्य ने आचार्यदेव से ऐसा प्रश्न किया हो कि - आप जिस श्रामण्य को अंगीकार करने की बात कर रहे हो, क्या वह संभव है ? तन पर वस्त्र नहीं रखना, भोजन नहीं करना, भोजन करने में भी अपने हाथ से बनाने की तो बात ही नहीं; यदि कोई स्वयं के लिए बनाए तो उसमें से भी विधिपूर्वक लेना - क्या यह सब संभव है? १. ये गाथाएँ भी इसी ग्रन्थ के मंगलाचरण की गाथाएँ हैं।