________________
३९०
प्रवचनसार
सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे । समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ।।२।। ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं । वंदामि य वट्टते अरहंते माणुसे खेत्ते ।।३।। एवं पणमिय सिद्धे जिणवरसहे पुणो पुणो समणे । पडिवज्जदु सामण्णं जदिइच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ।।२०१।।
एवं प्रणम्य सिद्धान जिनवरवषभान पन: पन:श्रमणान। प्रतिपद्यतां श्रामण्यं यदीच्छति दुःखपरिमोक्षम् ।।२०१।। अवशेष तीर्थंकर तथा सब सिद्धगण को कर नमन | मैं भक्तिपूर्वक नमूं पंचाचारयुत सब श्रमणजन ।।२।। उन सभी को युगपत तथा प्रत्येक को प्रत्येक को।
मैं न विदमान मानस क्षेत्र के अरहंत को||३|| जोसरेन्द्रों, असरेन्द्रों और नरेन्द्रों से वंदित हैं तथा जिन्होंने घातिकर्म-रूपीमल कोधो डाला है; ऐसे तीर्थरूप और धर्म के कर्ता श्री वर्द्धमान तीर्थंकर को नमस्कार करता हूँ।
विशुद्ध सत्तावाले शेष तीर्थंकरों, सर्वसिद्धों और ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार से सहित सभीश्रमणों को नमस्कार करता हूँ।
उन सभी को और मनुष्यक्षेत्र अर्थात् ढाई द्वीप में सदा विद्यमान रहनेवाले अरहंतों को समुदायरूप से एकसाथ और व्यक्तिगतरूप से प्रत्येक को अलग-अलग वंदन करता हूँ। __आरंभिक मंगलाचरण की इन गाथाओं की संगति २०१वीं गाथा के आरंभिक एवं शब्द से बिठाई गई है और कहा गया है कि इसप्रकार जिनवरवृषभरूप अरहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी
और श्रमणों अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और साधुपरमेष्ठियों को नमस्कार करके यदि सांसारिक दुःखोंसे मुक्त होना चाहते हों तो श्रामण्य को धारण करो। मूल गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) हे भव्यजन ! यदि भवदुखों से मुक्त होना चाहते।
परमेष्ठियों को कर नमन श्रामण्य को धारण करो।।२०१|| हे शिष्यगण! यदि तुम दुःखों से छूटना चाहते हो तो पूर्वोक्त प्रकार से सिद्धों को, जिनवर वृषभ आदिअरहंतोंकोतथाश्रमणोंकोबारम्बार नमस्कार करके श्रामण्य को अंगीकार करो।