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आचरणप्रज्ञापनाधिकार
__ (गाथा २०१ से गाथा २३१ तक) इति चरणाचरणे परान् प्रयोजयति -
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं ।
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ।।१।। ___उत्थानिका के उक्त कलश का आशय यह है कि नित्यानित्यात्मक आत्मवस्तु का मूल स्वरूप समझे बिना किये गये सदाचरण से पुण्य का बंध तो होगा; पर सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक धारण किये चारित्र का जो फल है, उसकी प्राप्ति नहीं होगी।
इसीप्रकार सदाचरण के बिना वस्तु का स्वरूप समझना संभव नहीं है अथवा सम्यग्दर्शन और ज्ञान हो जाने पर भी चारित्र धारण किये बिना मोक्ष की प्राप्ति होनेवाली नहीं है।
इसलिए यही ठीक है कि द्रव्य की सिद्धि होने पर ही चारित्र की सिद्धि होती है और चारित्र की सिद्धि हो जाने पर ही द्रव्य की सिद्धि होती है। अत: आत्मा का कल्याण करने की भावना रखनेवाले मुमुक्षु भाइयों को चाहिए कि वे द्रव्य के अनुसार चारित्र धारण करें। तात्पर्य यह है कि द्रव्यानुयोग में प्रतिपादित आत्मवस्तु के भानपूर्वक चारित्र धारण करें।
मंगलाचरण
(दोहा) अनागार आचरण से बनते श्रमण महान |
प्रज्ञापन आचरण को सुनो भविक धरि ध्यान || आचार्यदेव उत्थानिका की पहली ही पंक्ति में जो लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है - “अब दूसरों को चारित्र के आचरण करने में युक्त करते हैं।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि ‘परेषां और परान्' शब्दों से यह व्यक्त होता है कि यह चरणानुयोगसूचकचूलिका दूसरों के लिए लिखी गई है।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा को आरंभ करने के पहले पंचपरमेष्ठी का स्मरण करनेवाली इस ग्रंथ के मंगलाचरण की पहली, दूसरी और तीसरी गाथा को उद्धृत करते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) सुर असुर इन्द्र नरेन्द्र वंदित कर्ममल निर्मलकरन। वृषतीर्थ के करतार श्री वर्द्धमान जिन शत-शत नमन ||१||