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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
प्रवृत्त होता हूँ; क्योंकि अन्य कृत्य का अभाव है। अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं -
प्रथम तो मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ । केवल ज्ञायक होने से मेरा विश्व के समस्त पदार्थों के साथ भी सहज ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण संबंध ही है; किन्तु स्व-स्वामि लक्षणादि संबंध नहीं हैं; इसलिए मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं है, मैं तो सर्वत्र निर्ममत्व ही हूँ ।
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एक ज्ञायक भाव का सर्व ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से क्रमश: प्रवर्तमान अनन्त भूत, , वर्तमान और भावी विचित्र पर्यायसमूहवाले अगाध स्वभाव और गंभीर ऐसे समस्त द्रव्यमात्र को; मानो वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों; कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों और प्रतिबिम्बित हुए हों; इसप्रकार एक क्षण में ही जो शुद्धात्मा प्रत्यक्ष करता है, ज्ञेय-ज्ञायक संबंध की अनिवार्यता के कारण ज्ञेय-ज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होने से विश्वरूपता को प्राप्त होने पर भी जो शुद्धात्मा अनंतशक्तिवाले ज्ञायकस्वभाव के द्वारा एकरूपता को नहीं छोड़ता; जो अनादि संसार से इसी स्थिति में ज्ञायकभावरूप ही रहा है और जो मोह के द्वारा दूसरे रूप में जाना-माना यथास्थितमेवातिनि:प्रकम्पः संप्रतिपद्ये । स्वयमेव भवतु चास्यैवं दर्शन विशुद्धिमूलया सम्यग्ज्ञानोपयुक्ततयात्यन्तमव्याबाधरतत्वातसाधोरपि साक्षात्सिद्धभूतस्य स्वात्मनस्तभाभूतानां परमात्मनां च नित्यमेव तदेकपरायणत्वलक्षणो भावनमस्कारः ॥ २०० ॥
जाता रहा है; उस शुद्धात्मा को, यह मैं मोह को उखाड़ फेंककर, अतिनिष्कम्प रहता हुआ जैसा का तैसा ही प्राप्त करता हूँ ।
इसप्रकार दर्शनविशुद्धिमूलक समस्त ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यन्त अव्याबाध (निर्विघ्न) लीनता होने से साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत - ऐसे इस आत्मा को सिद्धभूत परमात्माओं को, उसी में एकपरायणतारूप भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो । ”
इस गाथा और उसकी टीका में समागत भाव का सारांश यह है कि आत्मार्थी के लिए आत्मपरिज्ञानपूर्वक निर्ममत्व होकर शुद्धात्मा में प्रवृत्ति करने के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य करनेयोग्य नहीं है।
आचार्यदेव घोषणा कर रहे हैं कि मेरा समस्त परपदार्थों के साथ मात्र ज्ञेय - ज्ञायक संबंध ही है; इसके अतिरिक्त अन्य कोई संबंध नहीं। तात्पर्य यह है कि आत्मा का पर के साथ न तो तादात्म्य संबंध है, न स्व-स्वामी संबंध है, न लक्ष्य-लक्षण संबंध है, न गुरु-शिष्य संबंध है, न विशेषण- विशेष्य संबंध है, न गुण-गुणी संबंध है, न वाच्य - वाचक संबंध है, न ग्रहण