SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८२ प्रवचनसार मुक्तिमार्ग को नमस्कार किया गया है। टीका में इस बात पर बल दिया गया है कि मुक्तिमार्ग शुद्धात्मप्रवृत्तिरूप है और आजतक जो सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे; वे सभी इसी मार्ग से मुक्त हुए हैं। मैं भी इसी मार्ग पर चलकर निर्विकल्परूप से सिद्ध भगवन्तों और मुक्तिमार्ग को नमस्कार कर रहा हूँ। तात्पर्य यह है कि मेरा यह नमस्कार भेदरूप द्रव्यनमस्कार नहीं है, अपितु अभेदरूप भावनमस्कार है । । १९९ ।। विगत गाथा में सिद्ध भगवान और मोक्षमार्ग को नमस्कार करके एक प्रकार से ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन महाधिकार का अन्तमंगल कर दिया है। अब इस गाथा में आचार्यदेव ५वी गाथा में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार निर्ममत्व में स्थित होकर ममता के त्याग का संकल्प करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) इसलिए इस विधि आतमा ज्ञायकस्वभावी जानकर । निर्ममत्व में थित मैं सदा ही भाव ममता त्याग कर ॥ २०० ॥ - अहमेष मोक्षाधिकारी ज्ञायकस्वभावत्मतत्त्वपरिज्ञान पुरस्सरममत्वनिर्ममत्वहानोपादानविधानेन कृत्यान्तरस्याभावात्सर्वारम्भेण शुद्धात्मनिर्वृत्ति प्रवर्ते । तथाहि - अहं हि तावत् ज्ञायक एव स्वभावेन, केवलज्ञायकस्य च सतो मम विश्वेनापि सहजज्ञेयज्ञायकलक्षण एव संबंध:, न पुनरन्ये स्वस्वामिलक्षणादयः संबंधाः । ततो मम न क्वचनापि ममत्वं, सर्वत्र निर्ममत्वमेव । अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्णलिखितनिखातकीलितमज्जितसमावर्तितप्रतिबिम्बितवत्तत्र क्रमप्रवृत्तानन्तभूतभवद्भाविविचित्रपर्यायप्राग्भारमगाधस्वभावं गम्भीरं समस्तमपि द्रव्यजातमेकक्षण एव प्रत्यक्षयन्तं ज्ञेयज्ञायकलक्षणसंबंधस्यानिवार्यत्वेनाशक्यविवेचनत्वादुपात्तवैश्वरूप्यमपि सहजानन्तशक्तिज्ञायकस्वभावेनैक्यरूप्यमनुज्झन्तमासंसारमनयैव स्थित्या स्थितं मोहेनान्यथाध्यवस्यमानं शुद्धात्मानमेष मोहमुत्खाय शुद्धात्मा में प्रवृत्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है; इसकारण मैं आत्मा को स्वभाव से ज्ञायक जानकर निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ ममता का परित्याग करता हूँ । इस गाथा के भाव को आ. अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “मैं यह मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व के परिज्ञानपूर्वक, ममत्व की त्यागरूप और निर्ममत्व के ग्रहणरूप विधि के द्वारा सर्व आरंभ (उद्यम) से शुद्धात्मा में
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy