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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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भावक का विभाग अस्त हो गया है - ऐसा नोआगमभावनमस्कार हो।
इसप्रकार मैंने मोक्षमार्ग निर्धारित किया है और मैं उसमें प्रवर्तन कर रहा हूँ।"
उक्त कथन में ध्यान देने की बात यह है कि गाथा में जिन, जिनेन्द्र और श्रमण शब्द आये हैं; जिनका सामान्य अर्थ चरमशरीरी सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली तथा चरमशरीरी और अचरमशरीरी सभी मुनिराज तो हो सकता है; परन्तु यहाँ श्रमण' शब्द से अचरमशरीरी अर्थात् उसी भव से मोक्ष नहीं जानेवाले मुमुक्षु भी लिये गये हैं; जिनमें ज्ञानी श्रावक और मुनिराज - सभी आ जाते हैं। साथ में यह लिखा है कि ये सभी शुद्धात्मप्रवृत्तिरूप मोक्षमार्ग से सिद्ध हुए हैं।
यहाँ एक प्रश्न सहज ही संभव है कि जो अचरमशरीरी हैं; वे सिद्ध कैसे हो सकते हैं ?
आचार्य जयसेन के चित्त में भी यह प्रश्न खड़ा हुआ होगा कि अचरमशरीरियों को सिद्धपना कैसे घटित हो सकता है। यही कारण है कि उन्होंने इसप्रकार की शंका उपस्थित कर उसका निम्नलिखितानुसार समाधान प्रस्तुत किया है - __ अथोपसंपद्ये साम्यमिति पूर्वप्रतिज्ञां निर्वहन् मोक्षमार्गभूतां स्वयमपि शुद्धात्मप्रवृत्तिमासूत्रयति -
तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । परिवजामि ममत्तिं उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्हि ।।२००।।
तस्मात्तथा ज्ञात्वात्मानं ज्ञायकं स्वभावेन ।
परिवर्जयामि ममतामुपस्थितो निर्ममत्वे ।।२००।। “उसी भव से मोक्ष नहीं जानेवाले अचरम शरीरियों के सिद्धपना कैसे संभव है? यदि कोई ऐसा प्रश्न करे तो उसका उत्तर आगम में इसप्रकार दिया गया है -
तवसिद्ध णयसिद्धे संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य।।
___णाणम्मि संदणम्मि य सिद्धे सिरसा णमंसामि ।। तप से सिद्ध, नय से सिद्ध, संयम से सिद्ध, चारित्र से सिद्ध, ज्ञान और दर्शन से सिद्ध हुए भगवन्तों को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
इसप्रकार उक्त गाथा में कहे गये क्रम से एकदेश सिद्धता अचरम-शरीरी जीवों के भी मानी गई है।"
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार की अंतमंगलाचरणरूप इस गाथा में मुक्तात्माओं और