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प्रवचनसार
उक्त शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि वे सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए परमसुख का ध्यान करते हैं। आचार्य जयसेन के अनुसार यह कथन उपचरित कथन है; क्योंकि अनंत अतीन्द्रिय सुख प्राप्त हो जाने से वस्तुतः उन्हें ध्यान होता ही नहीं है; परन्तु आगम में ऐसा कहा गया है कि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के अन्तिम दो पाये पाये जाते हैं।।१९७-१९८।।
'जब केवली भगवान को अभिलाषा, जिज्ञासा और सन्देह नहीं है तो फिर वे ध्यान किसलिए करते हैं और किसका करते हैं' - यह प्रश्न और इसका उत्तर विगत गाथाओं में दिया गया है; अब इस गाथा में यह कहते हैं कि मोक्षमार्ग शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने। निर्वाण अर निर्वाणमग को नमन बारंबार हो॥१९९।। एवं जिना जिनेन्द्रा: सिद्धा मार्ग समुत्थिता: श्रमणाः।
जाता नमोऽस्तु तेभ्यस्तस्मै च निर्वाणमार्गाय ।।१९९।। यत: सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थंकरा: अचरमशरीरा मुमुक्षवश्चामुनैव यथोदितेन शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा बभूवुः, न पुनरन्यथापि। ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गो, न द्वितीय इति। ___ अलं च प्रपञ्चेन । तेषां शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तानां सिद्धानां तस्य शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तिरूपस्य मोक्षमार्गस्य च प्रत्यस्तमितभाव्यभावकविभागत्वेन नोआगमभावनमस्कारोऽस्तु ।
अवधारितोमोक्षमार्गः, कृत्यमनुष्ठीयते ।।१९९।।
जिन, जिनेन्द्र और श्रमण अर्थात् सामान्य केवली, तीर्थंकर केवली और मुनिगण पूर्वोक्त मार्ग में आरूढ होकर ही सिद्ध हुए हैं, उन्हें और उक्त निर्वाणमार्ग को नमस्कार हो।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते
“सभी सामान्य चरमशरीरी, चरमशरीरी तीर्थंकर और अचरमशरीरी मुमुक्षु यथोक्त शुद्धात्मप्रवृत्ति है लक्षण जिसका - ऐसी विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए हैं; किसी अन्य विधि से आजतक कोई भी सिद्ध नहीं हुआ। इससे निश्चित होता है कि यह एक ही मोक्षमार्ग है, अन्य कोई नहीं। अधिक प्रपंच (विस्तार) से क्या लाभ है ? उस शुद्धात्मतत्त्व में प्रवर्तित सिद्धों को तथा शुद्धात्मप्रवृत्तिरूपमोक्षमार्ग को, जिसमें भाव्य और