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प्रवचनसार
ग्राह्य संबंध है, न कर्ता-कर्म संबंध है, न आधार-आधेय संबंध है और न रक्ष्य-रक्षक संबंध है। इसप्रकार आत्मा पर से निर्ममत्व ही है।
ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि ज्ञायकभाव का सर्वज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से समस्त द्रव्य अपने गुण और पर्यायों सहित ज्ञायकभाव में इसप्रकार ज्ञात होते हैं कि मानो वे ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों और प्रतिबिम्बित हो गये हों।
इसप्रकार ज्ञेय-ज्ञायक संबंध की अनिवार्यता के कारण गहराई से संबंधित होने पर भी ज्ञायकभाव ज्ञेयों से भिन्न ही है, भिन्न ही रहता है। इसलिए मैं तो निज ज्ञायकभाव को जैसा उसका मूल स्वभाव है, वैसा ही प्राप्त करता हूँ।
यद्यपि आचार्यदेव अभी साधु अवस्था में ही हैं; तथापि अपने आत्मा को सिद्धात्माओं के साथ स्थापित करते हैं और कहते हैं कि मेरा यह सिद्धात्माओं को अभेदरूप निर्विकल्प भावनमस्कार है।
(शालिनी छन्द) जैनं ज्ञानं ज्ञेयतत्त्वप्रणेतृ स्फीतं शब्दब्रह्म सम्यग्विग्राह्य । संशुद्धात्मद्रव्यमात्रैक वृत्त्या नित्यं युक्ते :
स थी य त 5 स म भि र व म ।। १० ।। इसके बाद आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति टीका में एक गाथा ऐसी प्राप्त होती है, जो तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। गाथा मूलत: इसप्रकार है -
दसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं । अव्वाबाधरदाणं णमो णमो सिद्धसाहूणं ।।१४॥
(हरिगीत ) सुशुद्धदर्शनज्ञानमय उपयोग अन्तरलीन जिन |
बाधारहित सुखसहित साधु सिद्ध को शत्-शत् नमन ||१४|| दर्शन से संशुद्ध, सम्यग्ज्ञानरूप उपयोग से सहित, निर्बाधरूप से स्वरूपलीन सिद्ध व साधुओं को बारम्बार नमस्कार हो।