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प्रवचनसार
आ. अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "यथोक्त विधि से जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति द्वारा शुद्धात्मतत्त्व प्राप्त होता है और उससे अनन्त शक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्र संचेतन लक्षण ध्यान होता है । फिर उस ध्यान के कारण साकार (सविकल्प) उपयोगवाले की अथवा अनाकार (निर्विकल्प) उपयोगवाले की - दोनों की अविशेषरूप से एकाग्र संचेतन की प्रसिद्धि होने से अनादि संस्कार से बंधी हुई अतिदृढ मोह की दुष्ट गाँठ का भेदन हो जाता है ।
इसप्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल मोह ग्रन्थि का भेदन-टूटना है ।
मोह ग्रन्थि है मूल जिनका - ऐसे राग-द्वेष का क्षय भी इस मोह ग्रन्थि के क्षय से होता है। राग-द्वेष के क्षय से परम मध्यस्थता जिसका लक्षण है - ऐसी सुख-दुःख में समानबुद्धिरूप श्रमणता (मुनिपना) प्रगट होती है और उससे अनाकुलता लक्षण अक्षय सुख की प्राप्ति होती है । इसप्रकार मोहग्रन्थि के भेदन से अक्षयसुखरूप फल की प्राप्ति होती है । " आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव स्पष्ट करने में तत्त्वप्रदीपिका अथैकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानमशुद्धत्वमात्मनो नावहतीति निश्चिनोति -
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जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । समवट्टिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा । । १९६ ।। यः क्षपितमोहकलुषो विषयविरक्तो मनो निरुध्य । समवस्थितः स्वभावे स आत्मानं भवति ध्याता । । ९९६ ।
टीका का अनुकरण करते हुए भी साकार - अनाकार उपयोग के साथ-साथ सागार का अर्थ श्रावक और अणगार का श्रमण भी करते हैं । तात्पर्य यह है कि श्रावक और श्रमण - - दोनों की मोह ग्रन्थि का भेद इसी विधि से होता है ।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि श्रावकों और श्रमणों के दर्शनमोहरूपी गाँठ है ही कहाँ ?
जबतक दर्शनमोह की मिथ्यात्व नामक प्रकृति का क्षय (जड़मूल से नाश - सत्ता से नाश) नहीं होता, तबतक एकप्रकार से मोहग्रन्थि विद्यमान ही है । इसप्रकार जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं हैं - ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि अणुव्रती और महाव्रती मुनिराजों के सत्ता में मिथ्यात्व विद्यमान ही है ।
इसप्रकार इन गाथाओं में साररूप से यह बताया गया है कि विगत गाथाओं में कहे गये