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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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आत्मा के संयोग में आनेवाले शरीर, धन, शत्रु, मित्र, संसारिक सुख-दुख आदि सभी संयोग ध्रुव नहीं हैं, अध्रुव हैं; इसलिए उपलब्ध करने योग्य नहीं हैं।।१९२-१९३ ।।
'ध्रुव होने से एक आत्मा ही उपलब्ध करने योग्य है; अन्य देहादि सभी संयोग अध्रुव होने से उपलब्ध करने योग्य नहीं हैं' – विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह समझाते हैं कि शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोहग्रन्थि का नाश होता है और मोहग्रन्थि के नाश से अक्षय अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) यह जान जो शुद्धात्मा ध्यावें सदा परमातमा दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा ||१९४|| मोहग्रन्थी राग-रुष तज सदा ही सुख-दुःख में। समभाव हो वह श्रमण ही बस अरवयसुख धारण करें||१९५|| य एवं ज्ञात्वा ध्यायति परमात्मानं िव श , द्ध । ₹ म । साकारोऽनाकारः क्षपयति स मोहदुर्ग्रन्थिम् ।।१९४।। यो निहतमोहग्रन्थी रागप्रद्वेषौ क्षपयित्वा श्रामण्ये ।
भवेत् समसुखदुःखः स सौख्यमक्षयं लभते ।।१९५।। अमुना यथोदितेन विधिनाशुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्तैः शुद्धात्मत्वं स्यात्, ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात्, ततः साकारोपयुक्तस्यानाकारोपयुक्तस्य वाविशेषेणाकाग्रचेतनप्रसिद्धसंसारबद्धदृढतरमोहदुर्ग्रन्थेरुद्ग्रथनं स्यात्। अत: शुद्धात्मोपलम्भस्य मोहग्रन्थिभेदः फलम् ।।१९४।।
मोहग्रन्थिक्षपणाद्धि तन्मूलरागद्वेषक्षपणं, तत: समसुखदुःखस्य परममाध्यस्थलक्षणे श्रामण्ये भवनं, ततोऽनाकुलत्वलक्षणाक्षयसौख्यलाभः । अतो मोहग्रन्थिभेदादक्षयसौख्यं फलम्॥१९५।।
ऐसा जानकर जो आत्मा विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है; वह चाहे साकार उपयोग (सविकल्प) में हो या अनाकार उपयोग (निर्विकल्प) में हो; वह मोहदन्थि कानाश अवश्य करता है।
टूट गई है मोहग्रन्थि जिसकी, वह आत्माराग-द्वेष का क्षय करके सुख-दुःख में समता भाव रखता हुआ श्रमणता में परिणमित होता है और अक्षय सुख प्राप्त करता है।