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प्रवचनसार
ज्ञानस्वरूप स्वधर्म से अविभाग अर्थात् अभिन्नत्व होने से एकत्व है ।
नित्यरूप से प्रवर्तमान ज्ञेयद्रव्यों के आलम्बन का अभाव होने से जो निरालम्ब है ऐसे आत्मा का ज्ञेयरूप परद्रव्यों से भिन्नत्व और तन्निमित्तिक ज्ञानस्वरूप स्वधर्म से अभिन्नत्व होने से एकत्व है ।
इसप्रकार एकत्वस्वरूप आत्मा शुद्ध है; क्योंकि चैतन्यमात्रग्राही शुद्धनय आत्मा को मात्र शुद्ध ही निरूपित करता है । किसी पथिक के शारीरिक अंगों के संसर्ग में आनेवाली मार्ग के अनेक वृक्षों की छाया के समान अन्य जो अध्रुव पदार्थ हैं; उनसे इस आत्मा को क्या प्रयोजन है ?
परद्रव्यों से अभिन्न और परद्रव्यों के द्वारा उपरक्त होनेवाले स्वधर्म से भिन्न होने के कारण, आत्मा से अतिरिक्त ऐसा कोई अन्य पदार्थ, जो आत्मा को अशुद्धपने का कारण हो, ध्रुव नहीं है; क्योंकि वह असत् और हेतुमान होने से आदि-अन्तवाला और परत: सिद्ध है; ध्रुव तो एक उपयोगात्मक शुद्ध आत्मा ही है । ऐसा होने से उपलभ्यमान अध्रुव शरीरादि के उपलब्ध होने पर भी मैं उन्हें उपलब्ध नहीं करता और ध्रुव शुद्धात्मा को उपलब्ध करता हूँ ।" अथैवं शुद्धात्मोपलम्भात्किं स्यादिति निरूपयति । अथ मोहग्रन्थिभेदात्किं स्यादिति निरूपयति -
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जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । खवेदि सो मोहदुग्गंठि । । १९४।। जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे । होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि । । १९५ ।।
उक्त गाथाओं में सब कुछ मिलाकर यही कहा गया है कि भगवान आत्मा ज्ञानात्मक है, दर्शनरूप है, अतीन्द्रिय महापदार्थ है, अचल है और निरालम्ब है।
ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग तो आत्मा के लक्षण हैं और न तो इस भगवान आत्मा का स्वभाव इन्द्रियों के माध्यम से देखने-जानने का है और न इन्द्रियों के माध्यम से देखनेजानने में आये - ऐसा ही है; इसलिए यह भगवान आत्मा अतीन्द्रिय महापदार्थ है ।
यह भगवान आत्मा ज्ञेयरूप परपदार्थों की पर्यायों के ग्रहण -त्याग से रहित होने पर अचल है और उन्हीं ज्ञेयरूप परपदार्थों का आलम्बन न लेने से निरालम्ब है।
इसप्रकार उक्त पाँच विशेषणों के कारण यह भगवान आत्मा एक है और एक होने से शुद्धता यह है कि यह एकता ही इसकी शुद्धता है। ऐसा शुद्धात्मा ही ध्रुव होने से एकमात्र उपलब्ध करने योग्य है।