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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
ध्रुव अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता ||१९२।। अरि-मित्रजन धन्य-धान्य सुख-दख देह कुछ भी ध्रव नहीं।
इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आतमा ।।१९३|| इसप्रकार मैं आत्मा को ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय महापदार्थ, ध्रुव, अचल, निरालम्ब और शुद्ध मानताहँ। जीव के शरीर, धन, सुख-दुःख अथवा शत्रु-मित्रजन - ये सभी ध्रुव नहीं हैं; ध्रुव तो एक उपयोगात्मक आत्मा ही है।
उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचंद्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“शुद्धात्मा सत् और अहेतुक होने से अनादि-अनंत और स्वतःसिद्ध है; इसलिए इस आत्मा के लिए शुद्धात्मा हीध्रुव है; अन्य कुछ भी ध्रुव नहीं है। परद्रव्यों से विभाग (भिन्नत्व) और स्वधर्म से अविभाग (अभिन्नत्व) ही आत्मा का एकत्व है और इस एकत्व के कारण ही आत्मा शुद्ध है। ज्ञानात्मक, दर्शनभूत, अतीन्द्रिय महापदार्थ, अचल और निरालम्बपने के कारण आत्मा एक है। स्वयं ज्ञानात्मक और दर्शनभूत आत्मा का, ज्ञान-दर्शन से रहित परद्रव्यों से भिन्नत्व और स्वधर्मों से अभिन्नत्व ही एकत्व है।
तथा प्रतिनियतस्पर्शरसगन्धवर्णगणशब्दपर्यायग्राहीण्यनेकानीन्द्रियाण्यतिक्रम्य सर्वस्पर्शरसगन्धवर्णगुणशब्दपर्यायग्राहकस्यैकस्य सतो महतोऽर्थस्येन्द्रियात्मकपरद्रव्यविभागेन स्पर्शादिग्रहणात्मकस्वधर्मविभागेन चास्त्येकत्वम् । ___तथा क्षणक्षयप्रवृत्तपरिच्छेद्यपर्यायग्रहणमोक्षणाभावेनाचलस्य परिच्छेद्यपर्यायात्मकपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् ।
तथा नित्यप्रवृत्तपरिच्छेद्यद्रव्यालम्बनाभावेनानालम्बस्य परिच्छेद्यपरद्रव्यविभागेन तत्प्रत्ययपरिच्छेदात्मकस्वधर्माविभागेन चास्त्येकत्वम् । एवं शुद्ध आत्मा, चिन्मात्रशुद्धनयस्य तावन्मात्रनिरूपणात्मकत्वात् अयमेक एव च ध्रुवत्वादुपलब्धव्य: किमन्यैरध्वनीनाङ्गसंगच्छमानानेकमार्गपादपच्छायास्थानीयैर-ध्रुवैः।।१९२।।
आत्मनो हि परद्रव्याविभागेन परद्रव्योपरज्यमानस्वधर्मविभागेन चाशुद्धत्वनिबन्धनं न किंचनाप्यन्यदसद्धेतुमत्त्वेनाद्यन्तवत्त्वात्परत: सिद्धत्वाच्च ध्रुवमस्ति । ध्रुव उपयोगात्मा शुद्ध आत्मैव । अतोऽध्रुवं शरीरादिकमुपलभ्यमानमपिनोपलभे, शुद्धात्मानमुपलभे ध्रुवम् ।।१९३।।
प्रतिनियत स्पर्श-रस-गंध-वर्णरूप गुणों और शब्दरूप पर्यायों को ग्रहण करनेवाली अनेक इन्द्रियों और शब्दरूप पर्यायों को जाननेवाले महापदार्थरूप आत्मा का इन्द्रियात्मक परद्रव्यों से भिन्नत्व और स्पर्शादि को जाननेवाले ज्ञानरूप स्वधर्म से अभिन्नत्व ही एकत्व है।
प्रतिक्षण नष्ट होनेवाली ज्ञेयपर्यायों को ग्रहण करने और छोड़ने का अभाव होने से अचल - ऐसे आत्मा कोज्ञेयपर्यायरूप परद्रव्य से विभाग अर्थात् भिन्नत्व और तन्निमित्तिक