________________
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
३७५
आत्मा का स्वरूपजानकर जो आत्मा आत्मा का अनुभव करता है, ध्यान करता है; वह मोह अर्थात् मिथ्यात्व की गाँठ का भेदन कर देता है, ग्रन्थिभेद कर देता है।
मोह की गांठ का भेदन करने के बाद अर्थात् मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषायों का नाश करने के बाद वह आत्मा अप्रत्याख्यानावरणादि राग-द्वेष का क्षय करता है और समताभाव धारण करता हुआ सच्चा श्रमण (मुनिराज) बन जाता है और फिर महाश्रमण (अरिहंत) बनकर अक्षयसुख प्राप्त करता है।।१९६।।
'शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोहग्रन्थि का नाश और मोहग्रन्थि के नाश से अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है।' – विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि आत्मा का ध्यान अशुद्धता का कारण नहीं होता। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) आत्मध्याता श्रमण वह इन्द्रियविषय जो परिहरे।
स्वभावथित अवरुद्ध मन वह मोहमल का क्षय करे||१९६|| आत्मनो हि परिक्षपितमोहकलुषस्य तन्मूलपरद्रव्यप्रवृत्त्यभावाद्विषयविरक्तत्वं स्यात्, ततोऽधिकरणभूतद्रव्यान्तराभावादुदधिमध्यप्रवृत्तैकपोतपतत्रिण इव अनन्यशरणस्य मनसो निरोध: स्यात्। ततस्तन्मूलचञ्चलत्वविलयादनन्तसहजचैतन्यात्मनि स्वभावे समवस्थानं स्यात्। तत्तु स्वरूपप्रवृत्तानाकुलैकाग्रसंचेतनत्वात् ध्यानमित्युपगीयते।
अतः स्वभावावस्थानरूपत्वेन ध्यानमात्मनोऽनन्यत्वात् नाशुद्धत्वायेति ।।१९६।।
जो संत मोहमल का क्षय करके, विषयों से विरक्त होकर, मन का निरोध करके, स्वभाव में समवस्थित हैं; वे संत आत्मा का ध्यान करनेवाले हैं।
इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"मोहमल का क्षय करनेवाले आत्मा के, मोहमल जिसका मूल है - ऐसी परद्रव्यप्रवृत्ति का अभाव होने से विषयविरक्तता होती है। उक्त विषयविरक्ततासे, समुद्र के मध्यगत जहाज के पक्षी की भांति, अधिकरणभूत द्रव्यान्तरों के अभाव होने से जिसे कोई अन्य शरण नहीं रहा है - ऐसे मन का निरोध होता है। ___ मन का निरोध होने से, मन जिसका मूल है - ऐसी चंचलता का विलय होने से अनंत सहज चैतन्यात्मक स्वभावसमवस्थान होता है। उस स्वभावसमवस्थान को स्वरूप में प्रवर्तमान, अनाकुल, एकाग्रसंचेतन होने से ध्यान कहा जाता है।