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प्रवचनसार
से कथन किया गया है - इसे बारीकी से समझना चाहिए।
यहाँ तो मूलत: यह कहा गया है कि यद्यपि यह भगवान आत्मा अशुद्धनिश्चयनय से रागादि का कर्ता होने पर भी पर का कर्ता नहीं है; तथापि असद्भूतव्यवहारनय से आत्मा अपने रागादि भावों को करते हुए पुद्गल कर्मों को करता है, ग्रहण करता है और उनका त्याग भी करता है। उक्त दोनों गाथाओं में से पहली गाथा में निश्चय से पर का अकर्ता बताया और दूसरी गाथा में व्यवहार से कथंचित् पर का कर्ता भी बताया है।।१८६-१८७।।
आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के उपरान्त एक गाथा आती है; जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में उपलब्ध नहीं होती। गाथा मूलत: इसप्रकार है -
सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसम्मि। विवरीदो दु जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ।।१३।।
( हरिगीत ) विशुद्धतम परिणाम से शुभतम करम का बंध हो।
संक्लेशतम से अशुभतम अर जघन हो विपरीत से ||१३|| अथैक एव आत्मा बन्ध इति विभावयति -
सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं। कम्मरएहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ।।१८८।।
सप्रदेशः स आत्मा कषायितो मोहरागद्वेषैः ।
कर्मरजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपित: समये ।।१८८।। यथात्र सप्रदेशत्वे सति लोध्रादिभिः कषायितत्वात् मञ्जीष्ठरङ्गादिभिरूपभिश्लिषटमेकं
तीव्र अर्थात् अधिक विशुद्धि होने पर शुभप्रकृतियों का तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है और तीव्र संक्लेशपरिणामों से अशुभ प्रकृतियों का तीव्र अर्थात् उत्कृष्ट बंध होता है तथा इससे विपरीत परिणामों से सभी प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है।
उक्त गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि किसप्रकार के शुभाशुभभावों में से किसप्रकार के भाव से किसप्रकार का बंध होता है। टीका में भी इसी बात को सोदाहरण दुहरा दिया है; अधिक विस्तार से कुछ नहीं कहा है। उक्त संदर्भ में विस्तार से जानने की इच्छा हो तो तत्संबंधी करणानुयोग के शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए।
परकर्तृत्व-भोक्तृत्व संबंधी जितना भी कथन है, वह सब असद्भूतव्यवहारनय का