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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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कथन है। यद्यपि यह कथन प्रयोजनपुरत: ही उपयोगी है, जानने योग्य है, उपादेय है; तथापि करणानुयोग का मूलाधार भी यही है; क्योंकि करणानुयोग आत्मा के विकारी भावों और पौद्गलिक कार्मणवर्गणाओं में होनेवाले निमित्त-नैमित्तिक संबंध को आधार बनाकर ही अपनी बात प्रस्तुत करता है।।१३।।
विगत गाथाओं में बंध का स्वरूप निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक स्पष्ट करने के उपरान्त अब आगामी गाथा में यह कहते हैं कि यह आत्मा स्वयं ही बंध है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) सप्रदेशी आतमा रुस-राग-मोह कषाययुत।
हो कर्मरज से लिप्त यह ही बंध है जिनवर कहा ।।१८८|| सप्रदेशी यह आत्मा यथासमय मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज से बद्ध होता हुआ 'बंध' कहा जाता है।
इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आ. अमृतचंद्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जिसप्रकार इस जगत में प्रदेशवाला होने से वस्त्र लोध-फिटकरी आदि से कषायित रक्तं दृष्टं वासः, तथात्मापि सप्रदेशत्वे सति काले मोहरागद्वेषैः कषायितत्वात् कर्मरजोभिरुपशिलष्ट एको बन्धो द्रष्टव्यः शुद्धद्रव्यविषयत्वान्निश्चयस्य ।।१८८।। अथ निश्चयव्यवहाराविरोधं दर्शयति -
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्ठो। अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ।।१८९।। एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयेन निर्दिष्टः ।
अर्हद्भिर्यतीनां व्यवहारोऽन्यथा भणितः ।।१८९।। रागपरिणाम एवात्मनः कर्म, स एव पुण्यपापद्वैतम् । रागपरिणामस्यैवात्मा कर्ता, तस्यैवोहोता है और कषायित होने से मंजीठादिरंग से सम्बद्ध होता हुआ अकेला हीरंगा हुआ देखा जाता है; उसीप्रकार सप्रदेशी होने से यह आत्मा भी यथाकाल मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज से लिप्त होता हुआ अकेला ही बंध है - ऐसा जानना चाहिए; क्योंकि निश्चय का विषय शुद्धद्रव्य है।"
वस्तुत: यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मा अपने पर्यायस्वभाव से रागादिरूप परिणत हो रहा है। इसमें कर्मोदयरूप निमित्त का कोई दोष नहीं है।
ध्यान रहे यहाँ उक्त कथन को शुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाले शुद्धनिश्चयनय का