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प्रवचनसार
भवदशा में रागादि को करता हुआ यह आतमा । रे कर्मरज से कदाचित् यह ग्रहण होता-छूटता ।।१८६|| रागादियुत जब आतमा परिणमे अशुभ-शुभ भाव में।
तब कर्मरज से आवरित हो विविध बंधन में पड़े||१८७|| आत्मद्रव्य संसारावस्था में उत्पन्न होनेवाले अपने अशुद्ध परिणामों का कर्ता होता हआ कर्मरज से कदाचित ग्रहण किया जाता है और छोडा जाता है।
जब आत्मा राग-द्वेषयुक्त होता हुआ शुभ और अशुभ में परिणमित होता है, तब कर्मरज ज्ञानावरणादिरूप से उसमें प्रवेश करती है।
इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित होता हुआ भी संसारावस्था में यह आत्मा परद्रव्य के परिणाम को निमित्तमात्र करते हुए केवल स्वपरिणाममात्र का कर्तृत्व अनुभव करता हुआ, उसके इसी परिणाम को निमित्तमात्र करके कर्मपरिणाम को प्राप्त होती हुई पुद्गलरज के द्वारा विशिष्ट अवगाहरूप से कदाचित् ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है।
अस्ति खल्वात्मनःशुभाशुभपरिणामकाले स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यकर्मपुद्गलपरिणाम:, नवघनाम्बुनो भूमिसंयोगपरिणामकाले समुपात्तवैचित्र्यान्यपुदगलपरिणामवत् । तथाहि - यथा यदा नवघनाम्बुभूमिसंयोगेन परिणमति तदान्ये पुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैः शाद्वल-शिलीन्ध्रशक्रगोपादिभावैः परिणमन्ते, तथा यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृतः शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्त: कर्मपुदगला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यै-आनावरणादिभावैः परिणमन्ते। अत: स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं, न पुनरात्मकृतम् ।।१८७।।
जिसप्रकार नये मेघजल के भूमिसंयोगरूप परिणाम के साथ अन्य पुद्गलपरिणाम स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं; उसीप्रकार आत्मा के शुभाशुभपरिणामों के समय कर्मपुद्गल परिणाम स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं। जिसप्रकार नये मेघजल के भूमि के संयोग में आने पर अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली, कुकुरमुत्ता और इन्द्रगोप आदि रूप परिणमित होते हैं; उसीप्रकार जब यह आत्मा राग-द्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभभावरूप परिणमित होता है; तब योग द्वारों से प्रविष्ट होते हुए अन्य कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि कर्मों की विचित्रता उनके स्वभावकृत ही है, आत्मकृत नहीं।" १. समयसार कलश, कलश ५१ २. समयसार नाटक, कर्ताकर्मक्रियाद्वार, छन्द-१७, पृष्ठ-८०