________________
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
३६१
आचार्य जयसेन की एक बात और भी उल्लेखनीय है। वे कहते हैं कि जिसप्रकार सिद्ध भगवान पुद्गलों के बीच रहते हुए भी परद्रव्य को न तो करते हैं, न ग्रहण करते हैं और न छोड़ते हैं; उसीप्रकार शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा शक्तिरूप से संसारी जीव भी इन सबसे रहित हैं ।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि यह आत्मा अपने विकारी भावों का कर्ता-भोक्ता तो है; परन्तु पर का कर्ता-भोक्ता कदापि नहीं है । इसप्रकार यह भगवान आत्मा परपदार्थों कोन तो करता है, न उन्हें ग्रहण करता है और न उन्हें छोड़ता ही है ।। १८४-१८५ ।
विगत गाथाओं में यह स्पष्ट हो जाने पर कि वस्तुत: यह आत्मा अपने रागादि विकारी भावों का कर्ता होने पर भी परद्रव्यों का कर्ता नहीं है और उनके ग्रहण -त्याग का भी कर्ता नहीं है; अब इन गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं कि परमार्थ से परपदार्थों के कर्तृत्व और ग्रहण-त्याग से रहित होने पर भी यह आत्मा व्यवहार से अपने विकारी भावों को करते हुए कदाचित् कर्मरज से ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है तथा वह कर्मरज ज्ञानावरणादि रूप परिणमित होती है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है
-
अथात्मन: कुतस्तर्हि पुद्गलकर्मभिरुपादानं हानं चेति निरूपयति । अथ किं कृतं पुद्गल - कर्मणां वैचित्र्यमिति निरूपयति.
स इदाणिं कत्तासं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स । आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मं धूलीहिं । । १८६ ।। परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ।। १८७ ।।
स इदानीं कर्ता सन् स्वकपरिणामस्य द्रव्यजातस्य । आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभि: ।। १८६ ॥
परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः । तं प्रविशति कर्मरजो ज्ञानावरणादिभावैः ।। १८७ ।।
सोऽयमात्मा परद्रव्योपादानहानशून्योऽपि सांप्रतं संसारावस्थायां निमित्तमात्रीकृतपरद्रव्यपरिणामस्य स्वपरिणाममात्रस्य द्रव्यत्वभूतत्वात्केवलस्य कलयन् कर्तृत्वं, तदेव तस्य स्वपरिणामं निमित्तमात्रीकृत्योपात्तकर्मपरिणामाभि: पुद्गलधूलीभिर्विशिष्टावगाहरूपेणोपादीयते कदाचिन्मुच्यते एव ।। १८६ ।।
( हरिगीत )