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________________ ३६० जीव पुद्गल मध्य रहते हुए पुद्गलकर्म को । जिनवर कहें सब काल में ना ग्रहे छोड़े- परिणमे ।। १८५ ॥ प्रवचनसार अपने भावों को करता हुआ यह आत्मा वस्तुत: अपने भाव का ही कर्ता है; पुद्गलद्रव्यमय सर्वभावों का कर्ता नहीं है। पुद्गल के मध्य रहता हुआ भी यह जीव वस्तुतः सदा ही उन पौद्गलिक कर्मों को न तो ग्रहण करता है, न छोड़ता है और न करता ही है । इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"वस्तुत: यह भगवान आत्मा अपने भाव का कर्ता है; क्योंकि वह भाव उसका स्वधर्म है । आत्मा में उसरूप परिणमित होने की शक्ति है । इसलिए वह कार्य अवश्यमेव आत्मा का कार्य है । इसप्रकार यह आत्मा अपने भाव को स्वतंत्रतया करता हुआ, उस भाव का कर्ता है और आत्मा के द्वारा किया गया वह अपना भाव आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से अवश्य ही आत्मा का कर्म है । इसप्रकार अपना परिणाम आत्मा का कर्म है। परन्तु यह भगवान आत्मा पौद्गलिक भावों को नहीं करता; क्योंकि वे पर के धर्म हैं; इसलिए आत्मा में उसरूप होने की शक्ति न होने से वे आत्मा के कर्म (कार्य) नहीं हैं । न खल्वात्मन: पुद्गलपरिणामः कर्म, परद्रव्योपादानहानशून्यत्वात् । यो हि यस्य परिणमयिता दृष्टः स न तदुपादानहानशून्यो दृष्ट:, यथाग्निरय: पिण्डस्य । आत्मा तु तुल्यक्षेत्रवर्तित्वेऽपि परद्रव्योपादानहानशून्य एव । ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमति स्यात् ।। १८५ ।। इसप्रकार यह आत्मा उन पौद्गलिक भावों को न करता हुआ, उनका कर्ता नहीं होता और वे पौद्गलिक भाव आत्मा के द्वारा न किये जाने से आत्मा के कर्म नहीं हैं । वस्तुत: बात यह है कि पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार अग्नि लोहे के गोले के ग्रहण-त्याग से रहित होती है; उसीप्रकार यह आत्मा परद्रव्य के ग्रहण - त्याग से रहित है । जो जिसका परिणमानेवाला होता है; वह उसके ग्रहण - त्याग से रहित नहीं होता । आत्मा परद्रव्य के साथ एक क्षेत्रावगाही होने पर भी परद्रव्य के ग्रहण - त्याग से रहित ही है । इसलिए यह आत्मा पुद्गलों को कर्मभाव से परिणमानेवाला नहीं है । आचार्य जयसेन इन गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए एक बात अत्यन्त स्पष्टरूप से कहते हैं कि यहाँ ‘स्वभाव' शब्द से रागादिभाव लेना चाहिए। वे लिखते हैं कि यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध-बुद्धएकस्वभाव ही कहा गया है; तथापि कर्मबंध के प्रसंग में अशुद्धनिश्चयनय से रागादि परिणाम भी स्वभाव कहलाते हैं। इसप्रकार यहाँ आत्मा को रागादि भावों का कर्ता कहा गया है और पर के कर्तृत्व का निषेध किया गया है।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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