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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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जगत, जिनवाणी में भी प्रयोजनवश सदाचार की सिद्धि के लिए अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारनय से इन मनुष्यादि पर्यायों को जीव कहा गया है। ____ अरे इन मनुष्यादि पर्यायों में जीव द्रव्य तो मात्र एक ही है, पर परमाणुरूप पुद्गल द्रव्य तो अनंत हैं। इसप्रकार जीव से अनंतगुणे पुद्गल जिन असमानजातीयद्रव्यपर्यायों में हों, उन्हें जीव कहना कहाँ तक उचित है - यह एक विचारणीय बात है। उक्त संदर्भ में इन गाथाओं में यह कहा गया है कि ये पृथ्वीकायिक आदि जीवनिकाय अन्य हैं और भगवान आत्मा अन्य है। जो यह नहीं जानता, वह आत्मा अज्ञानी है और जो आत्मा इन दोनों को अन्यअन्य जानता है, वह भेदज्ञानी आत्मा ज्ञानी है, धर्मात्मा है।।१८२-१८३॥
विगत गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि यह आत्मा त्रस-स्थावर आदि जीव निकायों से भिन्न है; तथापि यह आत्मा उनमें एकत्व-ममत्व करता है और उसके फल में अनन्त दु:ख उठाता है।
अब इन गाथाओं में यह कहा जा रहा है कि आखिर आत्मा का कार्य क्या है और पुद्गल परिणाम आत्मा का कार्य क्यों नहीं है - इसप्रकार के संदेह को दूर करते हैं।
गेण्हदिणेव ण मुंचदि करेदिण हि पोग्गलाणि कम्माणि । जीवो पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु ॥१८५।।
कुर्वन् स्वभावमात्मा भवति हि कर्ता स्वकस्य भावस्य । पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ।।१८४।। गृह्णाति नैव न मुञ्चति करोति न हि पुद्गलानि कर्माणि।
जीव: पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सर्वकालेषु ।।१८५।। आत्मा हि तावत्स्वंभावं करोति, तस्य स्वधर्मत्वादात्मनस्तथाभवनशक्तिसंभवेनावश्यमेव कार्यत्वात् । स तं च स्वतंत्र: कुर्वाणस्तस्य कर्तावश्यं स्यात्, क्रियमाणश्चात्मनास्वोभावस्तेनाप्यत्वात्तस्य कर्मावश्यं स्यात् । एवमात्मनः स्वपरिणाम: कर्म । न त्वात्मा पुद्गलस्य भावान् करोति, तेषां परधर्मत्वादात्मनस्तथाभवनशक्त्यसंभवेनाकार्यत्वात् । स तानकुर्वाणो न तेषांकर्तास्यात्, अक्रियमाणाश्चात्मना तेन तस्य कर्म स्युः । एवमात्मन: पुद्गलपरिणामो न कर्म ।।१८४॥ गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) निज भाव को करता हुआ निजभाव का कर्ता कहा। और पुद्गल द्रव्यमय सब भाव का कर्ता नहीं।।१८४||