________________
३५८
प्रवचनसार
और जीव भी उनसे अन्य है।
जो जीव इसप्रकार स्वभाव को प्राप्त करके पर को और स्व को नहीं जानता; वह मोह से 'यह मैं हूँ, यह मेरा है' - इसप्रकार अध्यवसान करता है।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"त्रस-स्थावर के भेदपूर्वक जो यह पृथ्वी आदि छह जीवनिकाय माने जाते हैं; वे अचेतनत्व के कारण जीव से अन्य हैं और जीव भी चेतनत्व के कारण उनसे अन्य है।
तात्पर्य यह है कि आत्मा के लिए आत्मा ही एक स्वद्रव्य है, छह प्रकार के जीवनिकाय आत्मा के लिए परद्रव्य हैं। ___ जो आत्मा जीव के चेतनत्व और पुद्गल के अचेतनत्वरूप स्वभाव के द्वारा स्व-पर के विभाग को नहीं देखता; वह आत्मा यह मैं हूँ, यह मेरा है' - इसप्रकार मोह से परद्रव्य में अपनेपन का अध्यवसान करता है, कोई दूसरा नहीं। अत: यह निश्चित है कि जीव को परद्रव्य में प्रवृत्तिका निमित्त स्व-पर के ज्ञान का, भेदविज्ञान का अभाव ही है। इसप्रकार कहे स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः। अतो जीवस्य परद्रव्य-प्रवृत्तिनिमित्तं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव सामर्थ्यात्स्वद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ।।१८३।।
अथात्मनः किं कर्मेति निरूपयति । अथ कथमात्मनः पुद्गलपरिणामोन कर्म स्यादिति संदेहमपनुदति -
कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स ।
पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।१८४।। बिना ही, स्व-सामर्थ्य से ही यह सिद्ध हुआ कि स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के ज्ञान के अभाव का अभाव है अर्थात् स्व-पर के ज्ञान का सद्भाव है। तात्पर्य यह है कि स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का कारण भेदविज्ञान है और परद्रव्य में प्रवृत्तिका कारण भेदविज्ञान का अभाव है।"
इन गाथाओं में मूलरूप से तो यही कहा गया है कि परद्रव्यों में प्रवृत्ति का एकमात्र कारण भेदविज्ञान का अभाव है और स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का उपाय एकमात्र भेदविज्ञान है।
पृथ्वीकायिक आदि जो संसारी जीव हैं; वे सभी सदेह हैं। तात्पर्य यह है कि अनादिकाल से आजतक शरीर से इनका वियोग एक समय के लिए भी नहीं हुआ। विग्रहगति में भी, न सही औदारिक-वैक्रियिक शरीर, पर कार्माण और तेजस शरीरों का संबंध तो विग्रहगति में भी रहता ही है। इसप्रकार ये मनुष्यादि पर्यायें एक आत्मा और अनन्त पुद्गल परमाणुओं के पिंड के रूप में हैं; तो भी यह अज्ञानी जगत इन्हें जीव कहता है। न केवल अज्ञानी