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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुद्धोपयोगाधिकार सुख-दु:ख नहीं होते; क्योंकि वे अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुखरूप परिणमित हो गये हैं। - इसी बात को स्पष्ट करते हुए यहाँ टीका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के अभाव से अथवा क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन के अभाव से अथवा इन्द्रियज्ञान-दर्शन के अभाव से केवलज्ञानी व केवलदर्शनी अथवा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अथवा अतीन्द्रिय ज्ञान-दर्शन वाला तथा अन्तराय कर्म के अभाव से अनंतवीर्य का धनी यह स्वयंभू भगवान आत्मा मोहनीय कर्म के अभाव के कारण निज चैतन्य तत्त्व का अनुभव करता हुआ स्वयं स्वभाव से ही स्वपरप्रकाशक ज्ञान और अनाकुललक्षण सुखरूप परिणमित होता है। अत: वह निरपेक्षभावसे अनन्तज्ञान और अनन्तसुखमय है। अन्त में आचार्य अमतचन्द्र निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि स्वभाव ही उसे कहते हैं कि जिसमें पर की अपेक्षा न हो। यही कारण है कि शुद्धोपयोग से घातिकर्मों के अभाव होते ही यह आत्मा इन्द्रियों के बिना ही स्वाभाविकरूप से स्वयं ही ज्ञान और आनन्दरूप से परिणमित हो जाता है।
अब यहाँ प्रश्न खड़ा होता है कि यह कैसे हो सकता है; क्योंकि अरहंत भगवान के देह विद्यमान है, इन्द्रियाँ विद्यमान हैं; इसकारण उनके देहगत इन्द्रिय सुख-दु:ख तो होना ही चाहिए? इसी प्रश्न के उत्तर में २०वीं गाथा लिखी गई है। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए आचार्य अमृतचन्द्र ने अग्नि से तप्त लोहपिण्ड से भिन्न अग्नि का उदाहरण दिया है।
अग्नि से संतप्त लोहा यद्यपि अग्निमय दिखाई देता है, तथापि उस तप्तलोहे में लोहा और अग्नि अपने-अपने स्वभाव से भिन्न-भिन्न ही हैं, जिसप्रकार घन के घात पड़ने से लोहा तुड़-मुड़ जाता है, किन्तु अग्नि को कुछ नहीं होता। उसीप्रकार अरहंत अवस्था में देह और आत्मा एक क्षेत्रावगाही होने पर भी स्वभाव से भिन्न-भिन्न ही हैं। यही कारण है कि अरहंत भगवान को देहजन्य सुख-दुख नहीं होते।
ये शुद्धोपयोगाधिकार की अंतिम गाथायें हैं। इसके उपरान्त अब क्रमश: ज्ञानाधिकार और सुखाधिकार आरंभ होंगे। आगामी अधिकारों की विषयवस्तु का संकेत इन गाथाओं में आ गया है। इन गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि अरहंत भगवान के चार घातिया कर्मों के नाश हो जाने से उनके ज्ञान और सुख अतीन्द्रियपने को प्राप्त हो गये हैं; इसकारण उनके पुण्य-पाप के उदय में होनेवाले देहगत सुख-दु:ख नहीं होते।
वे स्वयंभू सर्वज्ञ भगवान अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द और क्षायिकभावरूप अनंतज्ञान के धारी हो गये हैं। उनका वह अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुख कैसा है ? इस बात का विशेष वर्णन आगामी अधिकारों में स्वतंत्ररूप से किया जायेगा।
ज्ञानाधिकार में अतीन्द्रियज्ञान (सर्वज्ञता) और सुखाधिकार में अतीन्द्रिय अनंतसुख का निरूपण विस्तार से किया जायेगा।।१९-२० ।।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका और डॉ. हुकमचन्दभारिल्ल कृत ज्ञान-ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के अंतर्गत शुद्धोपयोगाधिकार समाप्त होता है।
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