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प्रवचनसार
१९वीं गाथा का अर्थ ऐसा भी किया जा सकता है कि जिनके घातिकर्म क्षय हो चुके हैं, जिनका तेज अधिक और वीर्य उत्तम है; उन स्वयंभू भगवान के ज्ञान और सुख अतीन्द्रिय हो गये हैं। __ अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणघातिकर्मा, क्षायोपशमिकज्ञानदर्शनासंपृक्तत्वादतीन्द्रियो भूत: सन्निखिलान्तरायक्षयादनन्तवरवीर्यः, कृत्स्नज्ञानदर्शनावरणप्रलयादधिककेवलज्ञानदर्शनाभिधानतेजाः, समस्तमोहनीयाभावादत्यन्तनिर्विकारचैतन्यस्वभावमात्मानमासादयन् स्वयमेव स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं च भूत्वा परिणमते। एवमात्मनोज्ञानानन्दौस्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपेक्षत्वादिन्द्रियैर्विनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दौसंभवतः।।१९।।
यत एव शुद्धात्मनो जातवेदस एव कालायसगोलोत्कूलितपुद्गलाशेषविलासकल्पो नास्तीन्द्रियग्रामस्तत एव घोरघनघाताभिघातपरम्परास्थानीयं शरीरगतंसुखदुःखंन स्यात्।।२०।।
केवलज्ञानी के शरीर संबंधी सुख-दुःख नहीं होते; क्योंकि उनके ज्ञान और आनन्द में अतीन्द्रियता उत्पन्न हो गई है।
उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"शुद्धोपयोग की सामर्थ्य से जिसके घातिकर्म क्षय हो गये हैं, क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन के साथ असंपृक्त (सम्पर्क रहित) होने से जो अतीन्द्रिय हो गया है, समस्त अन्तराय काक्षय होने से जिसका उत्तम वीर्य है और समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण का प्रलय हो जाने से जिसका केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज अधिक है; ऐसा यह स्वयंभू आत्मा समस्त मोहनीय कर्म के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्य स्वभाववाले आत्मा का अनुभव करता हुआस्वयमेव स्वपरप्रकाशकतालक्षण ज्ञान और अनाकुलतालक्षण सुखरूप होकर परिणमित होता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान और आनन्द आत्मा कास्वभाव ही हैं। चूँकि स्वभाव पर से निरपेक्ष होता है; इसलिए आत्मा के ज्ञान और आनन्दभी निरपेक्ष ही होते हैं, उन्हें इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है, देह की अपेक्षा नहीं है; वे पूर्णत: स्वाधीन हैं। आत्मा को सुखरूप और ज्ञानरूप परिणमित होने के लिए पर कीरंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है, आवश्यकता नहीं है।
जिसप्रकार तप्त लोहपिण्ड के विलास से अग्नि भिन्न ही है; उसीप्रकार शुद्ध आत्मा के इन्द्रियाँ नहीं हैं, शरीर नहीं है। इसलिए जिसप्रकार लोहे के गोले से भिन्न अग्नि को घन के घात नहीं सहने पड़ते; उसीप्रकार शुद्ध आत्मा के शरीर संबंधीसुख-दुःख नहीं होते।"
१९वीं गाथा में घातिया कर्मों के अभाव में उत्पन्न होनेवाले अनन्त चतुष्टय की चर्चा की गई है और २०वीं गाथा में यह कहा गया है कि सर्वज्ञ भगवान के देहगत अर्थात् इन्द्रियजनित