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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुद्धोपयोगाधिकार
विगत गाथाओं में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि यह स्वयंभू भगवान आत्मा शुद्धोपयोग के प्रभाव से इन्द्रियातीत हो गया है, उसके ज्ञान और आनन्द भी अतीन्द्रिय हो गये हैं। वह अनन्तज्ञान और अनन्तसुख से सम्पन्न हो गया है।
अथास्यात्मनः शुद्धोपयोगानुभावात्स्वयंभुवो भूतस्य कथमिन्द्रियैर्विना ज्ञानानन्दाविति संदेहमुदस्यति । अथातीन्द्रियत्वादेव शुद्धात्मनः शारीरं सुखदुःखं नास्तीति विभावयति ।
पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अहियतेजो। जादो अदिदिओ सोणाणं सोक्खं च परिणमदि।।१९।। सोक्खंवा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं। जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं ।।२०।।
प्रक्षीणघातिकर्मा अनन्तवरवीर्योऽधिकतेजाः । जातोऽतीन्द्रियः स ज्ञानं सौख्यं च परिणमति ।।१९।। सौख्यं वा पुनर्मुःखं केवलज्ञानिनो नास्ति देहगतम् ।
यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मात्तु तज्ज्ञेयम् ।।२०।। ऐसी स्थिति में इन्द्रियों से ही ज्ञान और आनन्द की उत्पत्ति माननेवाले अज्ञानीजनों को यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि शुद्धोपयोग के प्रभाव से स्वयंभू हुए इस भगवान आत्मा को बिना इन्द्रियों के ज्ञान और आनन्द की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
इन गाथाओं में उक्त आशंका का सतर्क समाधान करते हए अतीन्द्रिय होने से शुद्धात्मा में शारीरिक सुख-दुःख नहीं हैं - यह बताया गया है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) अतीन्द्रिय हो गये जिनके ज्ञान सुख वे स्वयंभू। जिन क्षीणघातिकर्म तेज महान उत्तम वीर्य हैं।।१९।। अतीन्द्रिय हो गये हैं जिन स्वयंभू बस इसलिए।
केवली के देहगत सुख-दुःख नहीं परमार्थ से।।२०।। जिनके घातिकर्म क्षय हो चुके हैं; जो अतीन्द्रिय हो गये हैं, जिनका तेज अधिक और वीर्य उत्तम है; ऐसे वे स्वयंभू भगवान आत्मा ज्ञान और सुखरूप परिणमन करते हैं।