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प्रवचनसार
उक्त गाथा में वस्तु के उस स्वभाव का निरूपण है, जो प्रत्येक वस्तु का सहज स्वभाव है, मूलभूत स्वभाव है; क्योंकि सत् द्रव्य का लक्षण है और वह सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है।
एक विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ गुण और पर्याय - इन दोनों को ही पर्याय शब्द से अभिहित किया गया है। यद्यपि आगम में भी इसप्रकार के कथन आते ही हैं; तथापि आजकल इसप्रकार के प्रयोग कम ही होते हैं।
गुणों को सहभावी पर्याय और पर्यायों को क्रमभावी पर्याय आगम में कहा ही है। उसी को यहाँ मुख्य किया गया है। यही कारण है कि यहाँ इसप्रकार का प्रयोग हुआ है कि किसी पर्याय से वस्तु उत्पाद-व्ययरूप है और किसी पर्याय से ध्रुवरूप । तात्पर्य यह है कि क्रमभावी पर्याय से वस्तु उत्पाद-व्ययरूप है और सहभावी पर्याय अर्थात् गुणों की अपेक्षा धुव है। __सब कुछ मिलाकर इस प्रकरण में यही कहा गया है कि सभी द्रव्यों के समान सिद्ध आत्मा भी, सर्वज्ञ आत्मा भी यद्यपि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त हैं; तथापि वे सदाकाल सिद्ध ही रहेंगे, संसारी कभी नहीं होंगे ।।१८।।
आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में इसके बाद एक गाथा ऐसी प्राप्त होती है कि जो आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका में उपलब्ध नहीं होती। वह गाथा इसप्रकार है -
तं सव्वट्ठवरिष्टुं इ8 अमरासुरप्पहाणेहिं । ये सद्दहति जीवा तेसिं दुक्खाणि खीयंति ।।१।।
(हरिगीत) असुरेन्द्र और सुरेन्द्र को जो इष्ट सर्व वरिष्ठ हैं।
उन सिद्ध के श्रद्धालुओं के सर्व कष्ट विनष्ट हों।।१।। जो सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ तथा देवेन्द्र और असुरेन्द्रों के इष्ट हैं; उन सिद्ध भगवान की श्रद्धा जो जीव करते हैं; उनके सभी दुःखों का क्षय हो जाता है।
उक्त गाथा में तो मात्र यही कहा गया है कि जिन सर्वज्ञ भगवान की, सिद्ध भगवान की यहाँ चर्चा चल रही है; वे सर्वश्रेष्ठ हैं, देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों को भी इष्ट हैं और जो व्यक्ति उनके स्वरूप को सही रूप में जानकर-पहिचान कर उनकी श्रद्धा करते हैं; उनके सभी कष्ट नष्ट हो जाते हैं।।१।।