________________
ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : शुद्धोपयोगाधिकार
इसी अपेक्षा को ध्यान में रखकर यहाँ यह बात कही गई है कि राग का ऐसा नाश किया कि जिसका कभी उत्पाद नहीं होगा और सर्वज्ञता का ऐसा उत्पाद किया कि जिसका कभी नाश नहीं होगा तथा उसमें निरन्तर होनेवाला उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तो विद्यमान ही है।।१७।। अथोत्पादादित्रयं सर्वद्रव्यसाधारणत्वेन शुद्धात्मनोऽप्यवश्यंभावीति विभावयति -
उप्पादोण विणासो विजदि सव्वस्स अट्ठजादस्स । पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो।।१८।। उत्पादश्च विनाशो विद्यते सर्वस्यार्थजातस्य ।
पर्यायेण तु केनाप्यर्थः खलु भवति सद्भूतः ।।१८।। यथाहि जात्यजाम्बूनदस्याङ्गदपर्यायेणोत्पत्तिर्दृष्टा; पूर्वव्यवस्थितांगुलीयकादिपर्यायेण च विनाशः, पीततादिपर्यायेण तूभयत्राप्युत्पत्तिविनाशावनासादयत: ध्रुवत्वम्; एवमखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पादः केनचिद्विनाश: केनचिद्धौव्यमित्यवबोद्धव्यम्। अत: शुद्धात्मनोऽप्युत्पादादित्रयरूपंद्रव्यलक्षणभूतमस्तित्वमवश्यंभावि ।।१८।।
अब १८ वीं गाथा में यह बताते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तो प्रत्येक वस्तु का सहज स्वभाव है; इसलिए वह शुद्धात्मा में भी अवश्य होगा ही। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) सभी द्रव्यों में सदा ही हो रहे उत्पाद-व्यय ।
ध्रुव भी रहे प्रत्येक वस्तु रे किसी पर्याय से||१८|| सभी पदार्थों के किसी पर्याय से उत्पाद और किसी पर्याय से विनाश होता है तथा किसी पर्याय से सभी पदार्थ सद्भूत हैं, ध्रुव हैं।
उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जिसप्रकार स्वर्ण की उत्तरपर्यायरूप बाजूबंद पर्याय से उत्पत्ति दिखाई देती है और पूर्वपर्यायरूप अंगूठी पर्याय से विनाश देखा जाता है तथा बाजूबंद और अंगूठी - दोनों ही पर्यायों में उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त नहीं होने से पीलापन पर्याय का ध्रुवत्व देखा जाता है।
उसीप्रकार सभी द्रव्यों के किसी पर्याय से उत्पाद, किसी पर्याय से व्यय और किसी पर्याय से ध्रौव्य होता है - ऐसा जानना चाहिए। उक्त कथन से यह प्रतिपादित हुआ कि शुद्ध आत्मा के भीद्रव्य कालक्षणभूत उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवश्यंभावी है।"