________________
ज्ञानाधिकार
(गाथा २१ से गाथा ५२ तक) अथ ज्ञानस्वरूप्रपञ्चं सौख्यस्वरूपप्रपञ्चं च क्रमप्रवृत्तप्रबन्धद्वयेनाभिदधाति । तत्र केवलिनोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वात्सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति विभावयति । अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भवतीत्यभिप्रैति
परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया। सो णेव ते विजाणादि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं ।।२१।। णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ।।२२।।
परिणममानस्य खलु ज्ञानं प्रत्यक्षा: सर्वद्रव्यपर्यायाः। स नैव तान् विजानात्यवग्रहपूर्वाभि: क्रियाभिः ।।२१।।
मंगलाचरण
(दोहा) सभी द्रव्य झलकें सदा मनहु आँवला हाथ।
अरे अतीन्द्रियज्ञान में गुण-पर्यय के साथ।। शुद्धोपयोगाधिकार के अन्त में जिस अनन्तज्ञान और अनन्तसुख की बात की है अथवा अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय सुख की बात की है; उनके संदर्भ में विस्तार से समझने के लिए अब क्रमश: ज्ञानाधिकार और सुखाधिकार की बात करते हैं। ___ यद्यपि इन अधिकारों का नाम तो ज्ञानाधिकार और सुखाधिकार ही है; तथापि इनमें ज्ञान
और सुख गुणों की चर्चा न होकर अतीन्द्रिय ज्ञान (केवलज्ञान-सर्वज्ञता) और अतीन्द्रिय सुख (अनंतसुख) की चर्चा है।
पहले ज्ञान अधिकार आरंभ करते हुए सर्वप्रथम २१वीं और २२वीं गाथाओं के माध्यम से यह बताते हैं कि केवलीभगवान के ज्ञान में सभी पदार्थ प्रत्यक्षरूप से ज्ञात होते हैं, उनके कुछ भी परोक्ष नहीं है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) केवली भगवान के सब द्रव्य गुण-पर्याययुत । प्रत्यक्ष हैं अवग्रहादिपूर्वक वे उन्हें नहीं जानते||२१|| सर्वात्मगुणसे सहित हैं अर जो अतीन्द्रिय हो गये। परोक्ष कुछ भी है नहीं उन केवली भगवान के||२२||