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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३४५ बस उसतरह ही जीव बाँधे मूर्त पुद्गलकर्म को।।१७४|| मूर्त पुद्गल तो रूपादिगुणों से युक्त होने से स्पर्शगुण के द्वारा परस्पर बंधन को प्राप्त होते हैं; किन्तु उससे विपरीत अमूर्त आत्मा पौद्गलिक कर्मों को किसप्रकार बांधता है? जिसप्रकार रूपादि गुणों से रहित जीव रूपी द्रव्यों और उनके गुणों को देखता-जानता है; उसीप्रकार अरूपी का रूपी के साथ बंध जानो। आ. अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “रूपादि गुणों से युक्त होने से मूर्त पुद्गल द्रव्य तो स्निग्ध-रूक्षत्व रूप बंध योग्य स्पर्शविशेष के कारण परस्पर बंधते हैं, बंधन को प्राप्त होते हैं - यह बात तो समझ में आती है; किन्तु आत्मा और पुद्गल परस्पर बंधन को प्राप्त होते हैं - यह कैसे माना जा सकता है ? गुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषसभवेऽप्यमूर्तस्यात्मनोरूपादिगुणयुक्तत्वाभावेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषासंभावनया चैकाङ्गविकलत्वात् ।।१७३।। येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मपुद्गलैः किल बध्यते, अन्यथा कथममूर्तो मूर्त पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् । न चैतदत्यन्तदुर्घटत्वाद्दाष्टन्तिकीकृतं, किन्तु दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम्। ___ तथा हि - यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृबलीव बलीव वा पश्यतो जानतश्चन बलीवन सहास्ति संबंधः, विषयभावावस्थितबलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढवबलीर्दाकारदर्शनज्ञानसंबंधो बलीवर्दसंबंधव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव । यद्यपि मूर्तकर्मपुद्गल में रूपादिगुण पाये जाते हैं; इसकारण उनमें यथायोग्य स्निग्धरूक्षत्व स्पर्शविशेष होते हैं; तथापि अमूर्त आत्मा में रूपादि गुणों का अभाव होने के कारण आत्मा में यथोचित स्निग्ध-रूक्षत्वरूपस्पर्शविशेष असंभव होने से एक अंग की विकलता है। अत: जीव और पौद्गलिक कर्मों का परस्पर बंध कैसे हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि परस्पर बंधनेवाले दोनोंद्रव्यों में यथोचित स्निग्ध-रूक्षत्व विशेष स्पर्श गुण होना चाहिए, तभी बंध हो सकता है। आत्मा में स्पर्श गुण का अभाव है - इसकारण एक अंग की विकलता है; अत: आत्मा का कर्मों से बंधना संभव नहीं है। यह शिष्य की शंका है; जिसका समाधान आचार्यदेव इसप्रकार करते हैं - जिसप्रकार रूपादि गुणों से रहित जीव, रूपी द्रव्यों को तथा उनके गुणों को देखता
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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