________________
३४४
प्रवचनसार
गुण-पर्यायमय होकर भी इनके भेदरूप नहीं है, विकल्परूप नहीं है।
यहाँ द्रव्य, गुण और पर्याय को निरपेक्ष सिद्ध करना है। उन्हें अपने अस्तित्व के लिए दूसरे की अपेक्षा नहीं है। वे एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते - इसका और क्या अर्थ हो सकता है ?
उक्त २० बोलों के माध्यम से भगवान आत्मा के अलिंगग्रहण स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। ये अरसादि और अलिंगग्रहण भाव भगवान आत्मा के ज्ञेयस्वभाव हैं। ज्ञानस्वभाव के समान ही आत्मा के ज्ञेयस्वभाव को जानना भी आवश्यक है। ज्ञेयस्वभाव और ज्ञानस्वभाव - दोनों के स्पष्ट होने पर ही भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट होता है।।१७२||
विगत १७२वीं गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि आत्मा अरस है, अरूप है, अगंध है और अस्पर्श है; अत: अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अरूपी आत्मा कारूपी पौद्गलिक
अथ कथममूर्तस्यात्मन: स्निग्धरूक्षत्वाभावाद्बन्धो भवतीति पूर्वपक्षयति । अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति -
मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं। तविक्रीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्म ।।१७।। रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ।।१७४।।
मूर्तो रूपादिगुणो बध्यते स्पर्शेरन्योन्यैः। तद्विपरीत आत्मा बध्नाति कथं पौद्गलं कर्म ।।१७३।। रूपादिकै रहितः पश्यति जानाति रूपादीनि ।
द्रव्याणि गुणांश्च यथा तथा बन्धस्तेन जानीहि ।।१७४।। मूर्तयोहि तावत्पुद्गलयो रूपादिगुणयुक्तत्वेन यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषादन्योन्यबन्धोऽवधार्यते एव । आत्मकर्मपुद्गलयोस्तु स कथमवधार्यते, मूर्तस्य कर्मपुद्गलस्य रूपादिकर्मों के साथ बंध कैसे हो सकता है ? आगामी १७३-१७४वीं गाथाओं में उक्त प्रश्न को उपस्थित कर उसका समाधान प्रस्तुत किया गया है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) मूर्त पुद्गल बंधे नित स्पर्श गुण के योग से। अमूर्त आतम मूर्त पुद्गल कर्म बाँधे किसतरह।।१७३|| जिसतरह रूपादि विरहित जीव जाने मूर्त को।