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प्रवचनसार
जानता है; उसीप्रकार रूपादि रहित जीव, कर्म पुद्गलों के साथ बंधता है । यदि ऐसा न हो तो देखने-जानने के संबंध में भी यह प्रश्न अनिवार्य हो जाता है कि अमूर्त, मूर्त को कैसे जान सकता है ? यह बात अत्यन्त दुर्घट है; इसलिए इसे दान्त रूप बनाया है - यह बात भी नहीं है। यह बात आबाल - गोपाल सभी की समझ में आ जाय, इसलिए इसे दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है।
जिसप्रकार बालक अथवा वृद्ध या ग्वाले का, उससे पृथक् रहनेवाले मिट्टी के बैल अथवा वास्तविक बैल को देखने-जानने पर भी बैल के साथ कोई संबंध नहीं है; तथापि विषयरूप (ज्ञेयरूप) रहनेवाला बैल जिसका निमित्त है; ऐसे उपयोगारूढ वृषभाकार ज्ञानदर्शन के साथ का संबंध बैल के साथ के संबंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।
तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबंध:, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबंध: कर्मपुद्गलबन्धव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव ।। १७४ । ।
इसीप्रकार अरूपित्व के कारण आत्मा स्पर्श शून्य है; इसलिए उसका कर्म - पुद्गलों के साथ संबंध नहीं हैं; तथापि एकावगाहरूप से रहनेवाले कर्मपुद्गल जिसके निमित्त हैं - ऐसे उपयोगारूढ राग-द्वेषादि भावों के साथ का संबंध कर्मपुद्गलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है । "
'बाल' शब्द के बालक, मूर्ख, अनजान आदि अनेक अर्थ होते हैं और गोपाल के ग्वाला, वृद्ध, भगवान आदि अनेक अर्थ होते हैं । इसप्रकार आबाल-गोपाल शब्द के अर्थ भी बालक से वृद्धत, अज्ञानी से भगवान तक और बालक व ग्वाले जैसे स्थूल बुद्धिवाले लोग हो सकता है। ग्वाले को लोक में अत्यन्त स्थूल बुद्धिवाला माना जाता है; इसकारण यहाँ यह कहा गया है कि बालक और ग्वाले जैसे स्थूलबुद्धि वालों की भी समझ में आ जावे, इसलिए दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है।
इसीप्रकार बालक वृद्ध तक अर्थात् सभी लोग और अजान से भगवान के समान बुद्धिमान तक सभी जीव सहजभाव से समझ सकें - इसकारण दृष्टान्त से समझाया गया आचार्य जयसेन इन गाथाओं के भाव को नयविभाग से मुक्त जीव, भेदज्ञान रहित अज्ञानी जीव और भेदज्ञानी जीव को आधार बनाकर समझाते हैं; जो मूलत: पठनीय है।
उक्त सम्पूर्ण विवेचन का सार यह है कि बंध के संबंध में शास्त्रों का कथन यह है कि दो द्रव्यों के बीच बंध का कारण स्निग्धता और रूक्षता है, जो स्पर्श गुणरूप होने से एकमात्र