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________________ ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार ३३७ १६. जो स्त्री, पुरुष और नपुंसक लिंगों (वेदों) को ग्रहण नहीं करता; वह आत्मा अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा द्रव्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष व नपुंसक नहीं है - इस अर्थ की प्राप्ति होती है। १७. जिस आत्मा के लिंगों अर्थात् धर्मचिह्नों का ग्रहण नहीं है; वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है - इस अर्थ की प्राप्ति होती है। १८. लिंग अर्थात् गुण, ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है, वह आत्मा अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा गुणविशेष से आलिंगित न होनेवाला शुद्धद्रव्य है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। मर्थावबोधोयस्येति गुणविशेषनालीढशुद्धद्रव्यत्वस्य । (१९) न लिंगं पर्यायो ग्रहणमर्थावबोधविशेषो यस्येति पर्यायविशेषानालीढशुद्धद्रव्यत्वस्य । (२०)न लिंगं प्रत्यभिज्ञानहेतुर्ग्रहणमर्थावबोधसामान्यं यस्येति द्रव्यानालीढशुद्धपर्यायत्वस्य ।।१७२।। १९. लिंग अर्थात् पर्याय, ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध विशेष जिसके नहीं है, वह आत्मा अलिंगग्रहण है। इसप्रकार आत्मा पर्यायविशेष से आलिंगित न होनेवालाशुद्धद्रव्य है - ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है। २०. लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारण जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है। इसप्रकार द्रव्य से नहीं आलिंगित शुद्धपर्याय है - ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए अलिंगग्रहण पद को छोड़कर शेष पदों का अर्थ तो तत्त्वप्रदीपिका के समान ही करते हैं; पर अलिंगग्रहण का अर्थ करते समय अलिंगग्रहण के अनेक अर्थ करते हुए भी तत्त्वप्रदीपिका के समान २० अर्थ नहीं करते । वे लिंग शब्द के मुख्यरूप से तीन अर्थ करते हैं - १. इन्द्रियाँ २. अनुमान और ३. चिह्न। आत्मान तोमात्र इन्द्रियों द्वारा पर कोजानता है और न पर से इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है; इसलिए अलिंगग्रहण है अर्थात् अतीन्द्रियज्ञान द्वारा जानता है और अतीन्द्रियज्ञान द्वारा ही जाना जाता है। इसीप्रकार आत्मा न तो अनुमान द्वारा पर को जानता है और न पर के द्वारा अनुमान से जाना जाता है; इसलिए अलिंगग्रहण है। अतीन्द्रिय ज्ञानमय होने से अतीन्द्रियज्ञान द्वारा ही जानता है और उसी के द्वारा जाना जाता है। आत्मान तो किन्हीं चिन्हों द्वारा जानता है और न किन्हीं चिन्हों द्वारा जाना जाता है; अत: अलिंगग्रहण है। अतीन्द्रिय ज्ञानमय होने से उसे चिन्हों द्वारा जानने और चिन्हों द्वारा ही जाने
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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