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शरीर होते हैं । औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर और कार्मण शरीर- ये सभी पुद्गलद्रव्यात्मक हैं ।
इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार समझाते हैं - “जिस जीव के परिणामों को निमित्तमात्र करके जो-जो पुद्गलकाय (पुद्गल - पिण्ड ) स्वयमेव कर्मरूप परिणमित होते हैं; अनादि संततिरूप प्रवर्तमान देहान्तर ( भवान्तर) रूप परिवर्तन का आश्रय लेकर वे -वे पुद्गलकाय स्वयमेव शरीर बनते हैं। इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है ।
यतो द्यौदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि सर्वाण्यपि पुद्गलद्रव्यात्मकानि । ततोऽवधार्यते न शरीरं पुरुषोऽस्ति ।। १७१।।
अथ किं तर्हि जीवस्य शरीरादिसर्वपरद्रव्यविभागसाधनमसाधारणं स्वलक्षणमित्या वेदयतिअरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं ।
जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। १७२ ।। चेतनागुणमशब्दम् । जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् । । १७२ ।।
अलिंग्गहणं अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं जानीह्यलिङ्गग्रहणं
जाण
प्रवचनसार
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर पुद्गल - द्रव्यात्मक हैं। इससे निश्चित होता है कि शरीर आत्मा नहीं है ।
"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में उक्त गाथाओं का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका के समान ही करते हैं, पर निष्कर्ष के रूप में इससे क्या कहा गया- ऐसा प्रश्न उठाकर उसके उत्तर में लिखते हैं कि औदारिक शरीर नामक नामकर्म रहित परमात्मा को प्राप्त न करनेवाले अज्ञानी जीवों के द्वारा उपार्जित औदारिक शरीर नामकर्म उन्हें भवान्तर में प्राप्त होकर उदय में आते हैं; उनके उदय से नोकर्म पुद्गल औदारिकादि शरीर के आकार में स्वयं ही परिणमित होते हैं ।
यही कारण है कि जीव औदारिक शरीरों का कर्ता नहीं होता ।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि ये औदारिक आदि शरीर शरीर नामक नामकर्म के उदयानुसार होनेवाले नोकर्मरूप परिणमन हैं। उक्त नामकर्म भी पौद्गलिक है और उसके उदयानुसार होनेवाला नोकर्मरूप शरीर भी पूर्णत: पुद्गल की रचना है; अतः इनका कर्ताधर्ता पुद्गल ही है, आत्मा नहीं।
वस्तुत: बात यह है कि यह ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा और मन-वचनकायरूप औदारिक शरीर पूर्णतः भिन्न-भिन्न हैं; अतः वे शरीरादि स्वयं ही स्वयं के स्वामी