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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि न तो आत्मा पौद्गलिक कार्मणवर्गणाओं को कर्मरूप परिणमाता है और न उन्हें कहीं से लाता ही है। वहीं स्थित वे कार्मण वर्गणायें आत्मा के रागादिभावों का निमित्त पाकर कर्मरूप परिणमित हो जाती हैं, आत्मा से बंध जाती हैं - ऐसा ही सहज निमित्त-नैमित्तिक भाव बन रहा है।।१६८-१६९ ।।
'आत्मा न तो पुद्गल कर्मों का कर्ता ही है और न उन्हें कहीं से लाता ही हैं' - विगत गाथाओं में यह सिद्ध करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह समझाते हैं कि औदारिक आदि
अथात्मनः कर्मत्वपरिणतपुदगलद्रव्यात्मकशरीरकर्तत्वाभावमवधारयति । अथात्मनः शरीरत्वाभावमवधारयति -
ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स। संजायते देहा देहंतरसंकमं पप्पा ।।१७०।। ओरालिओ य देहो देहो वेउव्विओ य तेजसिओ। आहारय कम्मइओ पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे ।।१७१।।
ते ते कर्मत्वगता: पुद्गलकायाः पुनरपि जीवस्य। संजायन्ते देहा देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ।।१७०।। औदारिकश्च देहो देहो वैक्रियिकश्च तैजसः।
आहारकः कार्मण: पुद्गलद्रव्यात्मका: सर्वे ।।१७१।। ये ये नामामी यस्य जीवस्य परिणामं निमित्तमात्रीकृत्य पुद्गलकायाः स्वयमेव कर्मत्वेन परिणमन्ति, अथ ते ते तस्य जीवस्यानादिसंतानप्रवृत्तशरीरान्तरसंक्रान्तिमाश्रित्य स्वयमेव च शरीराणि जायन्ते। अतोऽवधार्यते न कर्मत्वपरिणतपुद्गलद्रव्यात्मकशरीरकर्ता पुरुषोऽस्ति ॥१७०॥ शरीर पौद्गलिक हैं और वे जीव के साथ स्वयं बद्ध होते हैं; जीव उनका कर्ता नहीं है और जीव शरीररूप भी नहीं है। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) कर्मत्वगत जड़पिण्ड पुद्गल देह से देहान्तर। को प्राप्त करके देह बनते पुन-पुन: वे जीव की||१७०|| यह देह औदारिक तथा हो वैक्रियक या कार्मण।
तेजस अहारक पाँच जो वे सभी पुद्गलद्रव्यमय ||१७१|| कर्मरूप परिणत वे-वे पदगलपिण्ड देहान्तररूप परिवर्तन को प्राप्त करके पुनः पुनः