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हुआ है। जीव की परिणति को निमित्तरूप से प्राप्त करके कर्मत्व के योग्य स्कंध कर्मरूप परिणमित होते हैं; जीव उनको नहीं परिणमाता ।
प्रवचनसार
आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"अति सूक्ष्म और अति स्थूल न होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्तिवाले और अ सूक्ष्म और अतिस्थूल होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्ति से रहित पुद्गलस्कन्धों द्वारा अवगाह की विशेषता के कारण परस्पर बाधा किये बिना स्वयमेव सर्वप्रदेशों से लोक ठसाठस भरा हुआ है। इससे निश्चित होता है कि आत्मा पुद्गलपिण्डों को नहीं लाता । योगिभिरतिसूक्ष्मस्थूलतया तदयोगिभिश्चावगाहविशिष्टत्वेन परस्परबाधमानैः स्वयमेव सर्वत एव पुद्गलकायैर्गाढं निचितो लोकः । ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानामानेता पुरुषोऽस्ति ।। १६८ ।।
यतो हि तुल्यक्षेत्रावगाढजीवपरिणाममात्रं बहिरङ्गसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमन्तरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिनः पुद्गलस्कन्धाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ति । ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानां कर्मत्वकर्ता पुरुषोऽस्ति । । १६९ । ।
कर्मरूप परिणमित होने की शक्ति संपन्न पुद्गल स्कंध तुल्य क्षेत्रावगाही बाह्य कारण रूप जीव के परिणाममात्र का आश्रय करके स्वयमेव ही कर्मभाव से परिणमित होते हैं ।
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इससे निश्चित होता है कि आत्मा पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप करनेवाला नहीं है ।' आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में यद्यपि इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही स्पष्ट करते हैं, तथापि निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं -
“निश्चय से शुद्धस्वरूप होने पर भी, व्यवहार से कर्मोदय के अधीन होने से पृथ्वी आदि पाँच सूक्ष्म-स्थावरत्व को प्राप्त जीवों से लोक जिसप्रकार भरा रहता है; उसीप्रकार पुद्गलों से भी भरा रहता है । इससे ज्ञात होता है कि जिस शरीरावगाहक्षेत्र में जीव रहता है; उसी में बंध के योग्य पुद्गल भी रहते हैं; जीव उन्हें बाहर से नहीं लाता । "
इसप्रकार इन गाथाओं में और उनकी टीका में यह कहा गया है कि जिसप्रकार यह लोक अनन्त जीवों से ठसाठस भरा हुआ है; उसीप्रकार अनन्त कार्मण वर्गणाओं से भी भरा हुआ है; इसलिए जब आत्मा के रागादिभावों का निमित्त पाकर कार्मण-वर्गणायें अपनी पर्यायगत योग्यता से कर्मरूप परिणमित होती हैं; तब उन वर्गणाओं को दूसरी जगह से नहीं लानी पड़ती है; अपितु जहाँ जीव है, उसी स्थान से स्थित कार्मणवर्गणायें ही कर्मरूप परिणमित हो जाती हैं।