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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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हैं और स्वयं ही स्वयं के कर्ता-भोक्ता हैं।।१७०-१७१||
विगत गाथा में औदारिक आदि शरीर आत्मा नहीं हैं' - यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब यह बताते हैं कि शरीरादि सर्व परद्रव्यों से आत्मा को भिन्न बतानेवाला आत्मा का असाधारण स्वलक्षण क्या है ? गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है।
जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है।।१७२।। जीव को ऐसा जानो कि वह अरस है, अरूप है, अगंध है, अव्यक्त है, अशब्द है, अनिर्दिष्टसंस्थान है, चेतनागुण से युक्त है और अलिंग-ग्रहण है।
आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करनेवाली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह गाथा, वह गाथा है कि जो आचार्य कुन्दकुन्द के पाँचों ग्रन्थों में पाई जाती है। समयसार में ४९वीं, नियमसार में ४६वीं, पंचास्तिकाय में १२७वीं, अष्टपाहुड़ के भावपाहुड़ में ६४वीं गाथा है और इस प्रवचनसार में यह १७२वीं गाथा तो है ही।
आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी यह गाथा पाई जाती है। धवल के तीसरे भाग में भी यह गाथा है और पद्मनन्दी पंचविंशतिका एवं द्रव्यसंग्रहादि में यह उद्धृत की गई है। इसप्रकार आत्मा का स्वरूप प्रतिपादन करने वाली यह गाथा जिनागम की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गाथा है। इस गाथा में अरस, अरूप, अगंध आदि आठ विशेषणों के माध्यम से आत्मा का स्वरूप समझाया गया है।
यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि आचार्य अमृतचन्द्र ने कुन्दकुन्दत्रयी पर महत्त्वपूर्ण टीकायें लिखी हैं। समयसार पर आत्मख्याति, पंचास्तिकाय पर समय व्याख्या और इस प्रवचनसार पर तत्त्वप्रदीपिका नामक टीकायें लिखी हैं। ___ उन्होंने अपनी इन तीनों टीकाओं में इस गाथा का अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है; जो अपने-आप में अद्भुत है, मूलत: पठनीय है, मननीय है, गहराई से अध्ययन करने योग्य है और विशेष प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला है।
समयसार की आत्मख्याति टीका में अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त और अशब्द पदों की व्याख्या पर जोर दिया गया है, उनमें से प्रत्येक के छह-छह अर्थ किये हैं और अनिर्दिष्टसंस्थान के चार अर्थ किये हैं; पर अलिंगग्रहण का सामान्य-सा एक अर्थ करके ही छोड़ दिया है; परन्तु प्रवचनसार की इस तत्त्वप्रदीपिका टीका में स्थिति इससे एकदम उल्टी है। इसमें