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जानने की कोशिश की जानी चाहिए।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"परद्रव्य के संयोग के कारणरूप में कहा गया अशुद्धोपयोग वस्तुतः मन्द - तीव्र उदय विश्रान्तपरद्रव्यानुवृत्तितन्त्रत्वादेव प्रवर्तते, न पुनरन्यस्मात् । ततोऽहमेष सर्वस्मिन्नेव परद्रव्ये मध्यस्थो भवामि । एवं भवंश्चाहं परद्रव्यानुवृत्तितन्त्रत्वाभावात् शुभेनाशुभेन वाशुद्धोपयोगेन निर्मुक्तो भूत्वा केवलस्वद्रव्यानुवृत्तिपरिग्रहात् प्रसिद्धशुद्धोपयोग उपयोगात्मनात्मन्येव नित्यं निश्चलमुपयुक्तस्तिष्ठामि । एष मे परद्रव्यसंयोगकारणविनाशाभ्यासः । । १५९ ।।
अथ शरीरादावपि परद्रव्ये माध्यस्थं प्रकटयति । अथ शरीरवाङ्मनसां परद्रव्यत्वं निश्चिनोति -
प्रवचनसार
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णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । कत्ता अणुमंता णेव कत्ती १६ देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिद्दिट्ठा । पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं ।। १६१ ।।
दशा में रहनेवाले परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन होने से ही प्रवर्तित होता है, अन्य कारण से नहीं । इसलिए मैं समस्त परद्रव्यों में मध्यस्थ होता हूँ ।
इसप्रकार मध्यस्थ होता हुआ मैं परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन न होने से शुभाशुभरूप अशुद्धोपयोग से मुक्त होकर, मात्र स्वद्रव्यानुसार परिणति को ग्रहण करने से शुद्धोपयोगी होता हुआ उपयोगरूप निजस्वरूप से आत्मा में ही सदा निश्चल रूप से उपयुक्त रहता हूँ ।
यह मेरा परद्रव्य के संयोग के कारण के विनाश का अभ्यास है । "
अब यहाँ आचार्यदेव कह रहे हैं कि शुद्धोपयोग में रहना ही परद्रव्य के संयोग के कारण रूप अशुद्धोपयोग के विनाश का कारण है। अतः अब मैं समस्त परद्रव्यों से मध्यस्थ होता हूँ। इसप्रकार शुभाशुभभावरूप अशुद्धोपयोग से मुक्त होकर शुद्धोपयोगी होता हुआ पुण्यपाप से मुक्त होकर मैं निजात्मा में निश्चल होता हूँ; क्योंकि अशुद्धोपयोग के विनाश का एकमात्र यही उपाय है ।। १५९ ।।
विगत गाथा में अशुद्धोपयोग के विनाश के अभ्यास की बात करके अब इन गाथाओं में शरीरादि परद्रव्यों के प्रति माध्यस्थ भाव दिखाकर मन-वचन-काय परद्रव्य हैं. समझाते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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