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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
संक्षेप में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति पंचपरमेष्ठी का स्वरूप जानकर उनमें श्रद्धा रखता है, उनकी भक्ति करता है, उनका गुणगान करता है और जीवों के प्रति करुणाभाव रखता है; उसका वह भाव शुभभाव कहलाता है और वह शुभभाव पुण्यबंध का कारण है। अथ परद्रव्यसंयोगकारणविनाशमभ्यस्यति -
असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तोण अण्णदवियम्हि । होजं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए।।१५९।।
अशुभोपयोगरहितः शुभोपयुक्तो न अन्यद्रव्ये ।
भवन्मध्यस्थोऽहं ज्ञानात्मकमात्मकं ध्यायामि ।।१५९।। यो हि नामायं परद्रव्यसंयोगकारणत्वेनोपन्यस्तोऽशुद्ध उपयोग: स खलु मन्दतीव्रोदयदशा
जिसका उपयोग विषय-कषाय में मग्न रहता है, जो उग्रस्वभावी है, उन्मार्ग में लगा है और कुश्रुत, कुविचार और कुसंगति में पड़ा है; वह अशुभोपयोगी है और वह पापबंध करता है।
जो व्यक्ति इन दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोग से विरक्त रह अपने आत्मा का ध्यान करता है; वह शुद्धोपयोगी कर्मों का नाश करता है।।१५७-१५८ ।।
विगत गाथाओं में शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग के भेद-प्रभेदों और उनका फल दिखाकर अब इस गाथा में परद्रव्य के संयोग के कारण के विनाश का अभ्यास कराते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) आतमा ज्ञानात्मक अनद्रव्य में मध्यस्थ हो।
ध्यावे सदा ना रहे वह नित शुभ-अशुभ उपयोग में ||१५९|| अन्य द्रव्य में मध्यस्थ होता हुआमैं अशुभोपयोग से रहित होता हुआ और शुभोपयोग में उपयुक्त नहीं होता हुआज्ञानात्मक आत्मा कोध्याता हूँ।
ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ गाथा में अशुभोपयोग से निवृत्ति और शुभोपयोग में प्रवृत्ति न करने की बात कही है। दोनों के हेयपने में थोड़ा-बहुत अन्तर डाला है। तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोग को तो बुद्धिपूर्वक छोड़ना पड़ता है; पर शुभोपयोग सहज ही छूट जाता है; क्योंकि शुद्धोपयोग में चले जाने पर शुभोपयोग रहता ही नहीं है। मेरा कहना मात्र इतना ही है कि अशुभ से निवृत्ति और शुभ में अप्रवृत्ति - इस कथन में कुछ विशेष भाव भरा हुआ है। उसे