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ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानज्ञेयविभागाधिकार
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(हरिगीत) देह मन वाणी न उनका करण या कर्ता नहीं। ना कराऊँ मैं कभी भी अनुमोदना भी ना करूँ||१६०|| नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषाम् । कर्ता न न कारयिता अनुमन्ता नैव कर्तृणाम् ।।१६०।। देहश्च मनो वाणी पुद्गलद्रव्यात्मका इति निर्दिष्टाः।
पुद्गलद्रव्यमपि पुनः पिण्डः परमाणुद्रव्याणाम् ।।१६१।। शरीरं च वाचंच मनश्च परद्रव्यत्वेनाहं प्रपद्ये, ततो न तेषु कश्चिदपि मम पक्षपातोऽस्ति। सर्वत्राप्यहमत्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि।
तथा हि - न खल्वहं शरीरवाङ्मनसांस्वरूपाधारभूतमचेतनद्रव्यमस्मि, तानि खलु मां स्वरूपाधारमन्तरेणाप्यात्मन:स्वरूपं धारयन्ति । ततोऽहं शरीरवाङ्मन:पक्षपातमपास्यात्यन्तं मध्यस्थोऽस्मि । न च मे शरीरवाङ्मन:कारणाचेतनद्रव्यत्वमस्ति; तानि खलु मां कारणमन्तरेणापिकारणवन्ति भवन्ति । ततोऽहं तत्कारणत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तंमध्यस्थः।
देह मन वच सभी पुद्गल द्रव्यमय जिनवर कहे।
ये सभी जड़ स्कन्ध तो परमाणुओं के पिण्ड हैं।।१६१।। मैंन देह हूँ, न मन हूँ और न वाणीही हूँ। मैं इन मन-वचन-काय का कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला भीनहींहूँ और करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला भीनहीं हूँ।
देह, मन और वाणी पुद्गलद्रव्यात्मक हैं और वे पुद्गल द्रव्य परमाणुओं के पिण्ड हैं - ऐसावीतरागदेव ने कहा है।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"मैं शरीर, वाणी और मन को परद्रव्य के रूप में समझता हूँ; इसलिए मुझे उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है । मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हूँ।
अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं - वस्तुत: मैं शरीर, वाणी और मन के स्वरूप का आधारभूत अचेतन द्रव्य नहीं हूँ; क्योंकि मेरे बिना ही वे अपने स्वरूप को धारण करते हैं। इसलिए मैं इन शरीरादि का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ होता हूँ।
इसीप्रकार मैं शरीर, वाणी तथा मन का कारणरूप अचेतन द्रव्य नहीं हूँ; क्योंकि मेरे कारण हुए बिना ही वे कारणवान हैं; इसलिए मैं उनके कारणपने का पक्षपात छोड़कर