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प्रवचनसार
दिया है कि निश्चय से ये दश प्राण ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा से भिन्न हैं। ___अथ प्राणानां पौद्गलिक त्वं साधयति । अथ प्राणानां पौद्गलिककर्मकारणत्वमुन्मीलयति -
जीवो पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहिं कम्मेहिं । उवभुजं कम्मफलं बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं ॥१४८।। पाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं । जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्मे हिं।।१४९।।
जीव: प्राणनिबद्धो बद्धो मोहादिकैः कर्मभिः। उप जानः कर्मफलं बध्यतेऽन्यः कर्मभिः ।।१४८।। प्राणाबाधं जीवो मोहप्रद्वेषाभ्यां करोति जीवयोः।
यदि स भवति हि बन्धोज्ञानावरणादिककर्मभिः ।।१४९।। इस गाथा में जो प्राणों के भेद-प्रभेद गिनाये गये हैं; वह तत्त्वप्रदीपिका टीका में विगत गाथा की टीका में दे दिये गये हैं।
इसप्रकार इन तीन गाथाओं में मात्र यही कहा गया है कि प्राण चार प्रकार के होते हैं; जो कुल मिलाकर दश हो जाते हैं। इन्द्रिय प्राण के पाँच भेद, बल प्राण के तीन भेद और आयु व श्वासोच्छ्वास प्राण एक-एक - इसतरह दश प्राण हो गये। इन प्राणों से जो जीता है, वह व्यवहार जीव है; किन्तु ये प्राण तो पुद्गल के हैं, जड़ हैं; अत: ये भगवान आत्मा से भिन्न ही हैं। यही कारण है कि ज्ञान-दर्शन चेतना को धारण करनेवाले जीवों को ही निश्चय जीव कहा जाता है।।१४६-१४७||
विगत गाथाओं में यह कहा है कि संसारी जीवों के चार प्राण होते हैं, उनसे वह जीता है, जीता था और जियेगा; फिर भी ये प्राण तो पौद्गलिक ही हैं।
अब इन गाथाओं में प्राणों को पौद्गलिक सिद्ध करते हुए यह बताते हैं कि वे पौद्गलिक प्राण पौद्गलिक कर्मों के बंध के हेतु हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) मोहादि कर्मों से बंधा यह जीव प्राणों को धरे। अर कर्मफल को भोगता अर कर्म का बंधन करे||१४८|| मोह एवं द्वेष से जो स्व-पर को बाधा करे। पूर्वोक्त ज्ञानावरण आदि कर्म वह बंधन करे||१४९||